रविवार, 8 जनवरी 2012

पंचगव्य चिकित्सा और भारतीय गौवंश



भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद परम्परा में अनादी काल से गो का स्थान अत्यंत महत्व का रहा है. पञ्च गव्य के नाम से जाने गए गो उत्पादों का प्रयोग चिकित्सा हेतु व जीवन की विविध गतिविधियों में होता आया है. वेद, उपनिषद्, पुरानों में इनका वर्णन बड़े विस्तार व व्यापक रूप में मिलता है. गो की उत्पत्ति के आधुनिक सिद्धांत हमारे प्राचीन साहित्य से मेल नहीं खाते. वैसे भी अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की प्राचीनता व श्रेष्ठता को कम व हीन दिखाने के लिए अनेक तथ्यों को छुपाया, विकृत किया व बारम्बार झूठ का सहारा लिया है. इसके अनेकों प्रमाणों को श्री परशुराम शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ”भारतीय इतिहास का पुनर लेखन, एक प्रवंचना” में देखा जा सकता है. यह पुस्तक बाबा साहेब आप्टे स्मारक समिति, दिल्ली द्वारा प्रकाशित है. अतः गो की उत्पत्ती के विषय में प्रचलित आधुनिक सिद्धांत पर संदेह करने के ठोस कारण हमारे पास उपलब्ध हैं. ये सिद्धांत उन्ही यूरोपीय विद्वानों के घड़े हुए हैं जिनकी नीयत सही न होने के ढेरों प्रमाण परशुराम जी के इलावा पी.एन.ओक, पद्मश्री वाणकर, हेबालकर शास्त्री, बायर्न स्टीरना, एडवर्ड पोकाक, नाकामुरा आदि अनेक विश्व प्रसिद्ध विद्वानों ने दिए हैं. अतः गो की उत्पत्ती और उपयोगिता के भारतीय साहित्य में वर्णित पक्ष को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त होकर ; आस्था व गंभीरता से जांचने- परखने की आवश्यकता है.
आज की भारत की परिस्थितियों में भारत की सबसे बड़ी समस्या ” भारतीयों की अपनी सामर्थ्य के प्रति आस्था की कमी है” जिसकी ओर स्वामी विवेकानंद से लेकर डा. अबदुलकलाम तक ने बार-बार इंगित किया है. अतः यह निवेदन करना ज़रूरी है कि हम जब गो की विभूतियों पर चर्चा या कोई प्रयोग करें तो युरोपीय साहित्य को पढ़ कर बनी अश्रधा पूर्ण मानसिकता से सावधानीपूर्वक मुक्त हो लें. अन्यथा हम वही सब करते जायेंगे, वही दोहराते जायेंगे जो कि हमें समाप्त करने के लिए, हमसे करवाने का प्रबंध यूरोपियों ने शिक्षा तंत्र और मीडिया के माध्यम से किया हुआ है.
. जब हम पंचगव्य चिकित्सा की बात करेंगे तो सबसे पहले यह देखना होगा कि किस गो के उत्पादों का प्रयोग किया जाना है. हमारे चकित्सक जगत के वैद्य, व विद्वान चिकित्सकों को कई बार बड़ी दुविधा का सामना करना पड़ता है जब उन्हें पंचगव्य चिकित्सा के उतने अछे परिणाम नहीं मिलते जितने कि हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं. कई बार तो परिणाम मिलते ही नहीं. देखने-समझने की आवश्यकता है कि इसके क्या कारण हैं.
. सन १९८४ से चल रही अनेक आधुनिक खोजों से प्रमाणित हो चुका है कि विश्व में दो प्रकार का गोवंश है. एक के सभी उत्पाद अनेकों रोगों के जनक हैं और एक के उत्पाद अनेक रोगों को समाप्त करने वाले हैं. हैरानी की बात है कि २५-२६ साल पुरानी इन महत्वपूर्ण खोजों से हमारा देश पूरी तरह अनजान है. डा. राकेश पंडित जी के मार्ग दर्शन के कारण मुझे २०१० में दिल्ली में ‘ राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ ‘ की एक संगोष्ठी में भाग लेने का अवसर मिला. सारे भारत के उच्च कोटि के आयुर्वेद के विद्वान इस संगोष्ठी में आये हुए थे. विडंबना देखिये कि इन सब में एक भी वैद्य ऐसा नहीं था जो गोवंश के इस अंतर के बारे में जानता हो. स्नेहन के लिए स्वदेशी या विदेशी किस गो के घृत का प्रयोग करना है, इस बारे में सभी अनभिज्ञ थे ; ऐसा राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ के निर्देशक महोदय ने स्पष्ट माना. पिछले अनेक वर्षों से हम लोग केंद्र और हिमाचल प्रदेश के पशुपालन विभाग के संपर्क में आ रहे हैं. वहाँ भी कोई चिकित्सक गो वंश पर हुई इन खोजों के बारे में कुछ नहीं जानता. परिणाम स्वस्रूप पशुपालन विभाग और सरकार देश का हजारों करोड़ रुपया नष्ट कर के अमृत मय गुणों वाले स्वदेशी गोवंश को नष्ट कर रही है और विदेशी विषकारक गोवंश को ‘गोवंश सुधार’ के नाम पर बढ़ा रही है. इससे पता चलता है कि हमारे देश के शासकों, नेताओं, वैज्ञानिकों की जानकारी कितनी सीमित है और अपने देश के हितों को लेकर वे कितने लापरवाह है. यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि देश के कृषि, चिकित्सा, अन्तरिक्ष विज्ञान अदि विषयों के वैज्ञानिक भी इसी प्रकार अनजान होंगे जिस प्रकार गो विज्ञान और पशु विज्ञान के बारे में हैं. एक यह बात भी ध्यान में आती है कि विश्व के विकसित देश उपयोगी खोजों को हमसे किस प्रकार छुपा कर रखते हैं अतः वे कितने विश्वसनीय हैं, इसपर भी हमें सोचना चाहिए. यह सब समझे बिना हम अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कैसे कर सकेंगे, देश को आगे कैसे बढ़ा सकेंगे ?
आधुनिक खोजों के अनुसार गोवंश के दो प्रकार के वर्गीकरण बारे में प्राप्त जानकारी इस प्रकार है ——-
स्वदेशी, विदेशी गौवंश का अन्तर
विदेशी गौवंश ‘ए-1’
अनेक खोजो से साबित हुआ है कि अधिकांश विदेशी गौवंश विषाक्त है। आकलैण्ड की ‘ए-2, कार्पोरेशन तथा प्रसिद्ध खोजी विद्वान ‘डा. कोरिन लेक् मैकने’ की खोजों के अनुसार ‘ए-1’ प्रकार की गौ के दूध में ‘बीटा कैसीन ए-1, पाया गया है जिससे हमारे शरीर में ‘आई जी एफ-१ ( इन्सुलिन ग्रोथ हार्मोन-१) अधिक निर्माण होने लगता है। ‘आई जीएफ-1’ से कई प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिल चुके हैं।
इसके ईलावा-
‘ हैल्थ जनरल’ न्यूजीलैण्ड के अनुसार ‘ए-1’ दूध से हृदय रोग मानसिक रोग, मधुमेह, गठिया, आॅटिज्म (शरीर के अंगो पर नियंत्रण न रहना) आदि रोग होते हैं। सन् 2003 में ‘ए-2’ ‘कार्पोरेशन’ द्वारा किए सर्वेक्षण से पता चला है कि इन गऊओं के दूध् से स्वीडन, यूके, आस्ट्रेलिया, न्यूजिलेंड में हृदय रोग, मधुमेह रोगों में वृद्धि हुई है। फ्रांस तथा जापान में ‘ए-2’ दूध् से इन रोगों में कमी दर्ज की गई है। प्रशन है कि हानिकारक ‘ए-1’ तथा लाभदायक ए-2 दूध् किन गऊओं में है ?
पश्चिमी वैज्ञानिकों के अनुसार ७०% हालिस्टीन, रेड डैनिश और फ्रिजियन गऊएं हानिकारक ‘ए-1’ प्रोटीन वाली है। जर्सी की अनेक जातियां भी इसी प्रकार की है। पर यह स्पष्ट रूप से कोई नहीं बतला रहा कि लाभदायक ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं कौन सी है, कहां है स्वयं जरा ढूंढ़ें। विचार करें!!
ब्राजील में लगभग 40 लाख भारतीय गौवंश तैयार किया गया हैं और पूरे यूरोप में उसका निर्यात हो रहा है।
इनमें अधिकांश गऊएं भारतीय गीर नस्ल और शेष रैड सिंधी तथा सहिवाल हैं। यह सब जानने के बाद यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि उपयोगी ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं भारतीय है ? यूरोपीय देश कितने कपटी हैं जो इस प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारी हमसे अनेक दशकों तक छुपा कर रखते हैं. इतना ही नहीं अपनी मुसीबतें हम पर थोंपने का भरपूर पैसा भी हमसे वसूल करते हैं. क्या ऐसा अन्य अनेक विषयों में भी नहीं हो रहा होगा ? अनेकों बार इस प्रकार की जानकारी सामने है जिसे दबा दिया गया.
ऐसे में यदि यह संदेह करना गलत न होगा कि पशुपालन विभाग का दुरूपयोग करके, करोड़ रु. अनुदान देकर, पशु कल्याण के नाम पर भारतीय गौवंश को नष्ट करने की गुप्त योजना पश्चिमी ताकतें चला रही हैं. भोले भारतीयों को उनका आभास तक नहीं है। दूध् बढ़ाने और वंश सुधार के नाम पर भारतीय गौवंश का बीज नाश ‘कृत्रिम गर्भाधन’ करके कत्लखानों से कई गुणा अधिक आपकी सहमति, सहयोग से, आपके अपने द्वारा हो रह है। धन व्यय करके कृत्रिम गर्भाधन से अपने अमूल्य ‘ए-2’ गौवंश को हम स्वयं नष्ट कर रहें हैं। गौवंश विनाश यानी भारत का विनाश। चिकित्सा का अद्भुत साधन व कृषि का अनुपम आधार समाप्त हो रहा है.
विषाक्त विदेशी गौवंश से बने संकर भारतीय गौवंश से प्राप्त किया घी, दूध्, दही ही नही, गोबर, गौमुत्र, स्पर्श और निश्वास भी विषाक्त होगा न ? इन दुग्ध् पदार्थो से हमारा और हमारी संतानों का स्वास्थ्य बरबाद नही हो रहा क्या ? इनके गोबर, गौमूत्र से बनी खाद और पंचगव्य औषधिया भी परम हानिकारक प्रभाव वाली होगी। हमारी खेती नष्ट होने, पंचगव्य औषधियों के असफल होने, घी, दूध्, दहीं खाने-पीने पर भी स्वास्थय में सुधार होने की बजाए बिगाड़ का बड़ा कारण यह संकर गौवंश है, इसमें संदेह का कोई कारण नहीं.
समाधान सरल है :-
वर्तमान संकर नसल का गौवंश ‘ए-1’ तथा ‘ए-2’ के संयुक्त गुणों वाला है। इनमें ५०% से ६०% दोनो गुण हों तो स्वदेशी गर्भधन की व्यवस्था से अगली पीढ़ी में ‘ए-1’ २५% दूसरी बार १२% तथा तीसरी बार ६% रह जाएगा। बिगाड़ने वालों ने सन् 1700 से आज तक 300 साल धैर्य से काम किया, हम 10-12 साल प्रयास क्यों नही कर सकते? करने में काफी सरल है।
समस्या का विचारणीय पक्ष एक और भी है.
दूध् बढ़ाने के लिये दिए जाने वालो ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ या ‘आक्सीटोसिन’ आदि के इंजैक्शनो से अनेक प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिले हैं । इन इंजैक्शनों से दूध् में आई जी एफ-1 ;इन्सुलीन ग्रोथ फैक्टर-1 नामक अत्यधिक शक्तिशाली वृद्धि हार्मोन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है और मुनष्यों में , स्तन, कोलन, प्रोस्टेंट, फेफड़ो, आतों, पैक्रिया के कैंसर पनपने लगते हैं।
इलीनोयस विश्वविद्यालय के ‘डा. सैम्यूल एपस्टीन’ तथा ‘नैशनल इंस्टीटयुट’ आॅफ हैल्थ;अमेरीकाद्ध जैसी अनेक संस्थाओं और विद्वानों ने इस पर खोज की है।
ध्यान दें कि जिस हार्मोन के असर से मनुष्यों को कैंसर जैसे रोग होते हैं उनसे वे गाय-भैंस गम्भीर रोगो का शिकार क्यों नही बनेगे ? आपका गौवंश पहले 15-18 बार नए दूध् होता था, अब 2-4 बार सूता है। गौवंश के सूखने और न सूने का प्रमुख कारण दूध् बढ़ाने वाले हार्मोन हैं। आज लाखों गउएं सड़कों पर भटक रही हैं और उनका दूध् सूख गया है तो इसका बहुत बड़ा कारण ये दूध् बढाने वाले हारमोन हैं, इसे समझना होगा।
गौपालकों को भारत की वर्तमान परिस्थियों में अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का एक आयाम गौवंश चिकित्सा है। एलोपैथी चिकित्सा के अत्यधिक प्रचार का शिकार बनकर हम अपनी प्रमाणिक पारम्परिक चिकित्सा को भुला बैठे हैं। परिणामस्वरूप चिकित्सा व्यय बहुत बढ़ गया और दवांओं के दुष्परिणाम भी भोगने पड़ रहें हैं। दवाओं से विषाक्त बने मृत पशुओं का मांस खाकर गिद्धों की वंश समाप्ति का खतरा पैदा हो गया है।
जरा विचार करें कि इन दवाओं के प्रभाव वाला दूध्, गोबर, गौमूत्रा कितना हानिकारक होगा। इन दवाओं के दुष्प्रभावों से भी अनेकों नए रोग होते हैं, जीवनी शक्ति घटती चली जाती है।
आधुनिक विज्ञान के आधार पर स्वदेशी और विदेशी गोवंश के अंतर को समझलेना ही पर्याप्त नहीं. भारतीय इतिहास व संस्कृति के प्रति विद्वेष व अनास्था रखनेवाली पश्चिमी दृष्टी के आधार पर भारतीय साहित्य व दर्शन को ठीक से नहीं समझा जा सकता. गो के आध्यात्मिक व अलौकिक पक्ष को जानने-समझने के लिए भारतीय विद्वानों व भारतीय साहित्य का सहारा लेना ही पडेगा. यहाँ यह दोहरा देना प्रासंगिक होगा कि पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से उपजी मानसिकता से मुक्ति पाए बिना हम अपने साहित्य में वर्णित सामग्री के अर्थ समझने योग्य नहीं बन पायेंगे. आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा भारी मात्रा में हानिकारक एलोपैथिक दवाओं का प्रयोग पश्चिम के प्रचारतंत्र से उपजी हीनता का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है. योजनाबद्ध ढंग से आयुर्वेद के पाठ्यक्रम को विकृत किये जाने के कारण भी ऐसा हुआ हो सकता है.
अस्तु गोवंश के अंतर को थोड़ा समझ लेने के बाद अब पंचगव्य चिकित्सा की चर्चा उचित होगी. सामान्य रूप से प्रचलित पंचगव्य चिकित्सा पर ६ पृष्ठों की सामग्री वितरण हेतु उपलब्ध करवाई जा रही है. अतः उन प्रयोगों पर बात न करते हुए कुछ ऐसे प्रयोगों पर चर्चा करना उचित होगा जो थोड़े असामान्य प्रकार के हैं. निसंदेह जब भी गो उत्पादों की हम बात करेंगे तो वह शुद्ध भारतीय गोवंश के सन्दर्भ में होगी. जिस गो में जितना भारतीय अंश कम होगा, उसके परिणाम भी उतने कम होंगे. विदेशी गोवंश के प्रभाव से कुछ हानि की आशंका भी हो सकती है. गभीर रोगों की चिकित्सा में पंचगव्य का प्रयोग करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि गो को रासायनिक फीड या अन्य रसायन युक्त आहार न दिया जा रहा हो.
१. यदि गो के गोबर का लगभग ३-४ इंच लंबा और १-२ इंच चौड़ा टुकडा गो घृत लगा कर प्रातः- सायं धूप की तरह जलाया जाये तो इससे लगभग सभी फंगस, रोगाणु, कीटाणु सरलता समाप्त हो जाते हैं. इसके ऊपर एक-दो दाने दाख, मुनक्का या गुड का छोटा सा टुकड़ा रख दें तो प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है. अर्थात सभी कीटाणु जनित रोग इस सरल से प्रयोग से सरलता से नियंत्रित हो सकते हैं. यहां तक कि तपेदिक तक के रोगाणु इस छोटे से प्रयोग से नष्ट हो जायेंगे. नियमित रूप से गोबर की इस धूप के प्रयोग के कारण रासायनिक सुगंधों वाली धूप के कारण पैदा होने वाले अनेकों मानसिक और शारीरिक रोगों से भी बचाव हो जाएगा.
२. रात को सोते समय गोघृत का स्नेहन करने ( लगाने से ) अनेकों रोगों से रक्षा होती है. पाँव के तलवों, गुदाचक्र ( एक इंच गहराई तक ) , नाभि, नाक, आँख और सर में सोते समय और प्रातः काल यदि गो घृत लगाएं तो शरीर के सारे अंग, मस्तिष्क, ऑंखें स्वस्थ बने रहते हैं. स्मरण शक्ती आयु बढ़ने के साथ कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ती रहती है. कभी ऐनक नहीं लगती और न ही कभी मोतियाबिंद जैसे रोगों के होने की संभावना होती है.
३. अधरंग के रोगी को गोघृत की नसवार देने से अद्भुत परिणाम मिलते हैं. तत्काल नसवार देने से रोगी उसी समय ठीक होता है और पुराने रोगी को नियमित नसवार देने से चंद मास में वह रोगी ठीक होजाता है. आश्चर्य की बात तो यह है कि मर चुके स्नायुकोश भी फिर से बन जाते हैं जिसे कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में असंभव समझा जाता है. इसका अर्थ तो यह हुआ कि एल्ज़िमर्ज़ डिसीज़, पार्किन्सन डिसीज़, मधुमेह से मृत कोष, हृदयाघात से ह्रदय की क्षतिग्रस्त कोशिकाए पुनः बन जायेंगी. ऑटिज्म. मिर्गी अदि अनेकों असाध्य समझे जाने वाले रोगों में गो घृत प्रयोग के अद्भुत परिणाम हो सकते हैं. आवश्यकता है कि इस पर धैर्य के साथ शोध कार्य करने की आवश्यकता है.
४. मुम्बई के एक कैंसर के रोगी को चिकित्सक ने जवाब दे दिया और कहा कि १२-१४ दिन का जीवन शेष है. लीवर का कैंसर था जो बहुत अधिक फ़ैल जाने के कारण शल्य चिकित्सा संभव नहीं रही थी. वह रोगी लिखता है कि घर आकर उसने बेर के बराबर गोबर और २५-३० मी.ली. गोमूत्र को घोल कर कपडे में छाना और पीकर सो गया. कुछ देर बाद उसे भयंकर बदबू वाला पाखाना हुआ और गहरी नीद आ गयी. सोकर उठा तो कई दिन बाद उसे भूख लगी. रोगी को अंगूर का ताज़ा रस दिया गया. स्मरणीय है कि उन दिनों अंगूर बिना विषयुक्त स्प्रे के मिल जाता था. २१ दिन यही चिकित्सा चली. रोगी को लगा कि वह रोग मुक्त हो चुका है. शरीर में शक्ती और चेहरे पर अच्छी रौनक आगई थी. वह अपने चिकित्सक के पास गया तो उसे विश्वास हे नहीं आया कि यह वही कैंसर का रोगी है. प्राथमिक जांच में वह पूरी तरह कैंसर मुक्त नज़र आ रहा था. कोई लक्षण नहीं था जिससे वह रोगी लगता.
अंत में इतना निवेदन है कि आज संसार का सञ्चालन परदे के पीछे से जो शक्तियां कर रही हैं उनमें सबसे बड़ी भूमिका दवा निर्माता कंपनियों की है. वे इतनी शक्तिशाली और कुटिल हैं कि अपनी दवाओं के बाज़ार को बढाने व लाभ कामाने के लिए हर प्रकार के अनैतिक, अमानवीय हथकंडे अपनाती हैं. बहुत संभव है कि जिस प्रकार वे संसार भर के चिकित्सा शोध, स्वास्थ्य योजनाओं और पाठ्यक्रमों को अपने अनुसार चलाती है; उसी प्रकार अपने रास्ते में बाधा बनने वाले भारतीय गोवंश की समाप्ती के उपाय भी कर रही हों अन्यथा कोई कारण नहीं कि जिस भारतीय गो वंश का संवर्धन-पालन विश्व के देश अनेक वर्षों से कर रहे हैं, भारत में उसकी समाप्ति की सारी योजनायें बे रोकटोक जारी हैं. जिस विशकारक गो वंश को अमेरिका तक अपने देश में समाप्त करने के व्यापक प्रयास कर रहा है, उस हानिकारक हॉलीस्टीन अदि अमेरिकी गोवंश को भारत पर थोंपा जा रहा है, गोवंश संवर्धन के नाम पर.
अतः आवश्यक है कि हम अपने देश के हित में भारतीय गोवंश के संरक्षण व संवर्धन के उपाय व चिकत्सक होने के नाते पंचगव्य के प्रयोग के संकल्पबद्ध प्रयास करें. यह सब तभी संभव है जब हमें अपनी सामर्थ्य व सांस्कृतिक श्रेष्ठता पर विश्वास हो. फिर इस सब में बाधक बनने वाली शक्तियों के कुटिल प्रयासों का शिकार हम नहीं बनेगे और अपने शत्रु-मित्र की पहचान सरलता से कर सकेंगे . तब हम भारत-भारतीयता यानी राष्ट्र विरोधियों से निपटने के उपाय भी जीवन के हर क्षेत्र में कर सकेंगे. आज चिकित्सा क्षेत्र में भी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को पहचानने व उनके निराकरण की आवश्यकता है. हमारे अमूल्य गोवंश के विनाश के पीछे भी तो राष्ट्र विरोधी प्रयासों को हम तभी पहचान पाएंगे और उनका समाधान कर पायेंगे जब हम मैकाले की दी दुर्बुधि से मुक्ती पायेंगे और अपने देश समाज, राष्ट्र व संस्कृति को अपनी खुद की दृष्टी से देखना सीखेंगे.
मेरी किसी बात से किसी की को कष्ट हुआ हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर मैंने जो कुछ भी लिखा है वह सबके कल्याण की दृष्टी से है, किसी को अपमानित करने या कष्ट देने के लिए नहीं.
वन्दे मातरम ! गो माता कि जय!!

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

A Horrible N Fact about KFC & McDonald

A Horrible N Fact about KFC & McDonald
KFC has been a part of our American traditions for many years.
Many people, day in and day out, eat at KFC religiously.
Do they really know what they are eating?
During a recent study of KFC done at the University of New Hampshire ,
they found some very upsetting facts.
First of all, has anybody noticed that just recently,
the company has changed their name?

Kentucky Fried Chicken has become KFC.
Does anybody know why?
We thought the real reason was because of the 'FRIED' food issue.

IT'S NOT! !

The reason why they call it KFC is because they can not use the word chicken anymore.
Why? KFC does not use real chickens.
They actually use genetically manipulated organisms.
These so called 'chickens' are kept alive by tubes inserted into their bodies
to pump blood and nutrients throughout their structure.

They have no beaks, no feathers, and no feet.
Their bone structure is dramatically shrunk to get more meat out of them.
This is great for KFC.

Because they do not have to pay so much for their production costs.
There is no more plucking of the feathers or the removal of the beaks and feet.
The government has told them to change all of their menus
so they do not say chicken anywhere. If you look closely you will notice this.
Listen to their commercials, I guarantee you will not see or hear the word chicken.
I find this matter to be very disturbing.

I hope people will start to realize this and let other people know.
Please forward this message to as many people as you can.
Together we make KFC start using real chicken again.

Deidre Williams

Mis Tech, Boston/Hingham
Boston (617) 626 - 1295
Hingham (781) 740 - 1600 ext.112




McDonald
Foie Gras
cid:A1B60BFE-5EBA-40BE-BE68-EAE60C0008EB

Foie Gras Foie Gras means "Fat Liver"

It's very very luxury menu that originates from France But this dish comes from FORCE FEEDING a goose to make them develop FATTY LIVER DISEASE.
Let's see the source of this wonderful dish

cid:15179F87-7FD2-41FF-919F-06A13AF2C433
The geese are forced to eat.. even if it does not desire to
cid:3786731C-F60F-4E75-BF1D-45337086CFB8
The metal pipe pass through the throat to stomach ...even if it does not want to eat anything
To make the liver bigger and fatter
cid:4058ED91-7512-482B-976D-D72205880DC3
Cages are very small and they force the geese to stay in one position to avoid using energy, thus converting all food into fat.
cid:467225A4-AC8C-4229-B456-D183A25C61F4
How sad their eyes show up

cid:C47E0DAF-8238-428A-9FE2-7434785C3D50
Their legs were bloated from long standing everyday. No need to sleep because they will be caught to eat again
cid:39746A72-B7E4-4E45-8444-9A73449D1487
Although they try to defend themselves But it is useless
cid:3767DD7E-EB37-45BA-8983-DE7D8B9667BC
How sad this life is..
cid:8926B643-59D0-4C9A-A977-CE07315DCD8F
They are forced to eat until they are dead or their bodies cant stand with this
You see... the food is over its mouth
cid:57F841F5-72C4-40D1-B6A0-59FDFDBBE35C
The left who survive have crapped to be inflamed asses...blood easily come up with the shit
Not only mouth hurt, throat hurt , all time stomach ache from the food , Fat to bloated legs , no sleep , no exercise But also no free movement for life to see the sky or river
This your Healthy Liver like those Chicken

cid:F8B851FF-3584-49D2-BAD1-A2C85A077BC5

To get the beautiful and white liver that becomes unusually big like this

As Liver-canned from aboard

cid:8ED84864-E1F5-4E0B-B010-06BF1B3B3684
cid:8926B643-59D0-4C9A-A977-CE07315DCD8F
STOP THE DAILY TORTURE AND CRUELTY TO THE POOR ANIMAL.

THE PRICE OF EXCELLENCE IS DISCIPLINE.THE COST OF MEDIOCRITY IS DISAPPOINTMENT"
William Arthur Ward

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

पानी साफ करती जादुई फली

Author:
भरतलाल सेठ
सुरजना, सैजन, सहजन की फली (ड्रमस्टिक)सुरजना, सैजन, सहजन की फली (ड्रमस्टिक)अमृता प्रीतम की एक कविता में सुहांजने के फूल का जिक्र है, उनकी कविता का सुहांजना देश के अलग-अलग जगहों पर सुरजना, सैजन और सहजन बन जाता है। सहजन की फली (ड्रमस्टिक) का वृक्ष किसी भी तरह की भूमि पर पनप सकता है और यह बहुत कम देख-रेख की मांग करता है। इसके फूल, फली और टहनियों को अनेक प्रकार से उपयोग में लिया जा सकता है। ये एक जादुई फली है। भोजन के रूप में यह अत्यंत पौष्टिकता प्रदान करती है और इसमें औषधीय गुण भी हैं। हाल ही में शोध समुदाय का ध्यान इसकी ओर आकर्षित हुआ है क्योंकि इसमें पानी को शुद्ध करने के गुण भी मौजूद हैं।

सुखाई गई फली को जब पाउडर बनाकर पानी में डाला जाता है तो वह गुच्छा बनाने या एकत्रीकरण का कार्य करती है। पानी को शुद्ध करने के लिए एकत्रीकरण पहली शर्त है। इस रूप में इस फली के बीज फिटकरी व अन्य कृत्रिम रसायनों का स्थानापन्न है। ये रसायन पर्यावरण एवं स्वास्थ्य दोनों को ही हानि पहुंचाते हैं। फिटकरी को तो अल्जीमर्स नामक बीमारी तक से जोड़ा गया है। यह तो सुनिश्चित हो गया है इसके बीज का सत गुच्छे बनाने के संवाहक के रूप में कार्य करता है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि यह सूक्ष्मतम स्तर पर किस तरह कार्य करता है।

फरवरी 2010 में लेंगमुइर पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र जो कि स्वीडन स्थित उप्पसला विश्वविद्यालय द्वारा बोत्सवाना विश्वविद्यालय को दिए गए तकनीकी सहयोग से तैयार हुआ था, में बताया गया है कि किस तरह ये बीज अशुद्ध कणों को एकसाथ इकट्ठा करते हैं। वैसे ये बीज बोत्सवाना में पीढ़ियों से पारम्परिक रूप से जल शुद्धिकरण के कार्य में आते रहे हैं। ये आपस में जोड़ने वाले तत्व एक साथ इकट्ठा होकर गुच्छों में परिवर्तित हो जाते हैं और नीचे बैठ जाते हैं। सुरजना की फली के बीज बैक्टीरिया का भी नाश करते हैं।

उप्पसला विश्वविद्यालय के भौतिक एवं खगोलशास्त्र विभाग के प्राध्यापक एवं शोधकर्ता एड्रेन रिन्नी का कहना है कि गुच्छा बनने की प्रक्रिया को समझना बहुत जरुरी है, क्योंकि उसी के बाद हम इससे संबंधित प्राकृतिक पदार्थों का संभाव्य उपयोग कर पाएंगे। इसी कारण से हमें बीज की मात्रा और बनावट पर ध्यान देना होगा जो कि अवयवों को आपस में जोड़ती है।

यह पेड़ मूलतः भारत में विकसित हुआ है। अतएव इसकी स्थानीय उपलब्धता के कारण इसे साफ व सुरक्षित पानी उपलब्ध करवाने के वैकल्पिक स्त्रोत के रूप में देखा जा सकता है। भारत में पेयजल आपूर्ति विभाग ने ग्रामीण पेयजल आपूर्ति एवं सेनीटेशन परियोजनाओं को लेकर दो खंडों में सारगर्भित प्रकाशन किया है। एक स्वीकृत अध्ययन में तमिलनाडु के गांवों में 1999 से 2002 के मध्य फली के बीजों को शुद्धिकरण की प्रक्रिया के रूप में इस्तेमाल किया गया था। यह अध्ययन कोयम्बटूर के अविनाशलिंगम इंस्ट्टियूट फॉर होम साइंस एण्ड हायर एजुकेशन फार वुमेन द्वारा भवानी नदी के तट पर स्थित उन तीन गांवों में किया गया था, जहां पर कि नदी का पानी पीने योग्य नहीं था।
कोयंबटूर अध्ययन की मुख्य वैज्ञानिक जी.पी.जयन्थी का कहना है कि ‘फली के पाउडर ने पानी की गंदगी और बेक्टीरिया की संख्या में काफी कमी की है।’ परंतु उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा है कि यह पूर्ण समाधान नहीं है। इसे उस आनलाइन मापदंड के नजरिए से देखना चाहिए जिसके अनुसार सुरजना की फली का बार-बार उपयोग, पीने योग्य पानी की गारंटी नहीं देता। इस हेतु कुछ अतिरिक्त उपचार की अनुशंसाएं की गई हैं। वैसे फरवरी 2010 में माइक्रोबायलाजी के नवीनतम मापदंड में इन बीजों के इस्तेमाल को सहमति प्रदान की गई है।इस आनलाइन शोध में विश्वभर में सर्वाधिक 11,500 शोधकर्ताओं के मापदंडों का संग्रह है। इसके अंतर्गत ग्रामीण इलाकों के गरीब लोगों को बजाए दूषित जल पीने के इन बीजों के प्रयोग की सलाह भी दी गई है।

शोध पत्र के अनुसार इसके माध्यम से गंदगी में 80 प्रतिशत से लेकर 99.5 प्रतिशत एवं बेक्टीरिया की संख्या में 90 प्रतिशत तक की कमी आती है। शोधपत्र में इसके प्रयोग हेतु सहयोगी प्रपत्र भी जारी किया गया है। इसके अनुसार गांव में बर्तनों में प्रति लीटर पानी में 100-200 व 400 मिलीग्राम पाउडर डालकर बर्तन को एक मिनट तक जोर से हिलाया जाए। इसके बाद उसे धीमे-धीमे हिलाने के बाद एक मिनट के लिए रखा जाए। तत्पश्चात ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ता तय करे की बीज की कितनी मात्रा उपयोग में लाई जाए। जयन्थी का कहना है कि भारत में स्वच्छ पानी उपलब्ध नहीं है। इन इलाकों में सुरजना के बीज के इस्तेमाल की बात फैलाई जानी चाहिए। उनके दल द्वारा किए गए अध्ययन को आठ वर्ष बीत गए हैं परंतु धन की कमी के कारण उन स्थानों पर फालोअप नहीं हो पाया है।

सरकार भी इस मसले पर बहुत उत्साहित नहीं है। पेयजल आपूर्ति विभाग के उप सलाहकार डी. राजशेखर का कहना है कि ‘हमने इस तकनीक को औपचारिक रूप से प्रमाणित नहीं किया है। इसे एक उपलब्ध विकल्प के तौर पर स्वीकार किया जा सकता है। यह तो राज्य पर है कि वह इसकी कम लागत वाले सक्षम विकल्प के रूप में पहचान सुनिश्चित करें।’ (सप्रेस/सीएसई, डाउन टू अर्थ फीचर्स)

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

Dr. A.P.J. Abdul Kalam wants to provide RIGHT TO RECALL to Every Indian

NEW DELHI, March 5 : If the people had been provided the Right To Recall the elected candidate who had failed to do the aspirations of the people, it would help the nation to choose the right candidate. This was stated by the former President of India Dr. A.P.J. Abdul Kalam in the inaugural session of the National Consultation on Voters’ participation organised by the Election Commission of India held at Hyatt Regency, Bhikaji Cama Place here on Thursday.

Emphasizing on the youth as a crucial element of participation, the former President, A.P.J. Abdul Kalam, said: “The message from the youth, based on interactions with them, is that the youth of India want to live in an economically developed state. The leaders must speak about their vision for the nation and should work and succeed with integrity.” He further emphasised the importance of developmental politics.

He opined for introduction of new technology of unique identity document in the election process for ensuring free and fair election.

There were 10 roundtables at the consultation which pertained to fighting urban apathy, connecting with youth in the above 18 category, engaging civil society in voters’ education and electoral participation, challenges for women’s participation, using social marketing strategies to enhance participation, bringing the excluded population into the fold, and restructuring curriculum to inculcate values of democratic and electoral practices.

Chief Electoral Officer of Manipur P.C.Lawmkunga, Chief Editor of ISTV Yumnam Rupachandra and Prof Kshetri Bimola of Manipur University took part at the national consultation.

At the roundtable on the “Role of media in building voters’ awareness” moderated by Editor-in-Chief of The Hindu N. Ram; ISTV Chief Editor Yumnam Rupachandra as rapporteur submitted the recommendations and findings. Patrica Mukhim , Editor of Shillong Times and Manpreet Randhawa of Hindustan Times also participated at the roundtable.

In the discussion, it was noted that voter participation was described as voters participating in “an informed way in elections that are free, fair and socially just.” It was emphasised that developing a sense of citizenship, overcoming feelings of alienation and marginalisation was also integrally connected with voter participation.

Participants in the discussion said that there was also a need for greater and sustained interaction between the Election Commission of India and the media at various levels working journalists, senior editors and media proprietors.

It was pointed out that the print medium had been used extensively but invariably through paid advertisements. “This needs to change and all the media should do more in this regard on a voluntary and unpaid basis,” the group recommended.

Mr. Ram noted that paid news, as a phenomenon which came to the fore during the 2009 Lok Sabha elections and also in some Assembly polls, had given a “very bad name” to the press.

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