सोमवार, 25 अप्रैल 2011

26 लाख करोड़ से भी ज्यादा का कोयला महाघोटाला, मनमोहन सिंह द्वारा


देश का सबसे महाघोटालेबाज़ और कोई नहीं खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह है जिसे लोग इमानदार कहते है.......
अगर 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाला देश के सभी घोटालों की जननी है तो आज जिस घोटाले का चौथी दुनिया पर्दाफाश कर रहा है, वह देश में हुए अब तक के सभी घोटालों का पितामह है. चौथी दुनिया आपको अब तक के सबसे बड़े घोटाले से रूबरू करा रहा है. देश में कोयला आवंटन के नाम पर करीब 26 लाख करोड़ रुपये की लूट हुई है. सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही नहीं, उन्हीं के मंत्रालय में हुआ. यह है कोयला घोटाला. कोयले को काला सोना कहा जाता है, काला हीरा कहा जाता है, लेकिन सरकार ने इस हीरे का बंदरबांट कर डाला और अपने प्रिय-चहेते पूंजीपतियों एवं दलालों को मुफ्त ही दे दिया. आइए देखें, इतिहास की सबसे बड़ी लूट की पूरी कहानी क्या है.

सबसे पहले समझने की बात यह है कि देश में कोयला उत्खनन के संबंध में सरकारी रवैया क्या रहा है. 1973 में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए देश में कोयले का उत्खनन निजी क्षेत्र से निकाल लिया और इस एकाधिकार को सरकार के अधीन कर दिया.
मतलब इसका राष्ट्रीयकरण कर दिया गया. शायद इसी कारण देश में कोयले का उत्पादन दिनोंदिन बढ़ता गया. आज यह 70 मिलियन मीट्रिक टन से बढ़कर लगभग 493 (2009) मिलियन मीट्रिक टन हो गया है. सरकार द्वारा कोयले के उत्खनन और विपणन का एकाधिकार कोल इंडिया लिमिटेड को दे दिया गया है. इस कारण अब कोयला नोटिफाइड रेट पर उपलब्ध है, जिससे कोयले की कालाबाज़ारी पर बहुत हद तक नियंत्रण पा लिया गया. लेकिन कैप्टिव ब्लॉक (कोयले का संशोधित क्षेत्र) के नाम पर कोयले को निजी क्षेत्र के लिए खोलने की सरकारी नीति से इसे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा और यह काम यूपीए सरकार की अगुवाई में हुआ है.
सबसे बड़ी बात है कि यह घोटाला सरकारी फाइलों में दर्ज है और सरकार के ही आंकड़े चीख-चीखकर कह रहे हैं कि देश के साथ एक बार फिर बहुत बड़ा धोखा हुआ है. यह बात है 2006-2007 की, जब शिबू सोरेन जेल में थे और प्रधानमंत्री ख़ुद ही कोयला मंत्री थे. इस काल में दासी नारायण और संतोष बागडोदिया राज्यमंत्री थे. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में कोयले के संशोधित क्षेत्रों को निजी क्षेत्र में सबसे अधिक तेजी से बांटा गया. सबसे बड़ी बात यह है कि ये कोयले की खानें सिर्फ 100 रुपये प्रति टन की खनिज रॉयल्टी के एवज़ में बांट दी गईं. ऐसा तब किया गया, जब कोयले का बाज़ार मूल्य 1800 से 2000 रुपये प्रति टन के ऊपर था. जब संसद में इस बात को लेकर कुछ सांसदों ने हंगामा किया,
तब शर्मसार होकर सरकार ने कहा कि माइंस और मिनरल (डेवलपमेंट एंड रेगुलेशन) एक्ट 1957 में संशोधन किया जाएगा और तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. 2006 में यह बिल राज्यसभा में पेश किया गया और यह माना गया कि जब तक दोनों सदन इसे मंजूरी नहीं दे देते और यह बिल पास नहीं हो जाता, तब तक कोई भी कोयला खदान आवंटित नहीं की जाएगी. लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में जानबूझ कर लंबित रखा गया और 2010 में ही यह क़ानून में तब्दील हो पाया. इस दरम्यान संसद में किए गए वादे से सरकार मुकर गई और कोयले के ब्लॉक बांटने का गोरखधंधा चलता रहा. असल में इस विधेयक को लंबित रखने की राजनीति बहुत गहरी थी. इस विधेयक में साफ़-साफ़ लिखा था कि कोयले या किसी भी खनिज की खदानों के लिए सार्वजनिक नीलामी की प्रक्रिया अपनाई जाएगी. अगर यह विधेयक लंबित न रहता तो सरकार अपने चहेतों को मुफ्त कोयला कैसे बांट पाती. इस समयावधि में लगभग 21.69 बिलियन टन कोयले के उत्पादन क्षमता वाली खदानें निजी क्षेत्र के दलालों और पूंजीपतियों को मुफ्त दे दी गईं. इस दरम्यान प्रधानमंत्री भी कोयला मंत्री रहे और सबसे आश्चर्य की बात यह है कि उन्हीं के नीचे सबसे अधिक कोयले के ब्लॉक बांटे गए. ऐसा क्यों हुआ? प्रधानमंत्री ने हद कर दी, जब उन्होंने कुल 63 ब्लॉक बांट दिए. इन चार सालों में लगभग 175 ब्लॉक आनन-फानन में पूंजीपतियों और दलालों को मुफ्त में दे दिए गए
वैसे बाहर से देखने में इस घोटाले की असलियत सामने नहीं आती, इसलिए चौथी दुनिया ने पता लगाने की कोशिश की कि इस घोटाले से देश को कितना घाटा हुआ है. जो परिणाम सामने आया, वह स्तब्ध कर देने वाला है. दरअसल निजी क्षेत्र में कैप्टिव (संशोधित) ब्लॉक देने का काम 1993 से शुरू किया गया. कहने को ऐसा इसलिए किया गया कि कुछ कोयला खदानें खनन की दृष्टि से सरकार के लिए आर्थिक रूप से कठिन कार्य सिद्ध होंगी. इसलिए उन्हें निजी क्षेत्र में देने की ठान ली गई. ऐसा कहा गया कि मुना़फे की लालसा में निजी उपक्रम इन दूरदराज़ की और कठिन खदानों को विकसित कर लेंगे तथा देश के कोयला उत्पादन में वृद्धि हो जाएगी. 1993 से लेकर 2010 तक 208 कोयले के ब्लॉक बांटे गए, जो कि 49.07 बिलियन टन कोयला था. इनमें से 113 ब्लॉक निजी क्षेत्र में 184 निजी कंपनियों को दिए गए, जो कि 21.69 बिलियन टन कोयला था. अगर बाज़ार मूल्य पर इसका आकलन किया जाए तो 2500 रुपये प्रति टन के हिसाब से इस कोयले का मूल्य 5,382,830.50 करोड़ रुपये निकलता है. अगर इसमें से 1250 रुपये प्रति टन काट दिया जाए, यह मानकर कि 850 रुपये उत्पादन की क़ीमत है और 400 रुपये मुनाफ़ा, तो भी देश को लगभग 26 लाख करोड़ रुपये का राजस्व घाटा हुआ. तो यह हुआ घोटालों का बाप. आज तक के इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला और शायद दुनिया का सबसे बड़ा घोटाला होने का गौरव भी इसे ही मिलेगा. तहक़ीक़ात के दौरान चौथी दुनिया को कुछ ऐसे दस्तावेज हाथ लगे, जो चौंकाने वाले खुलासे कर रहे थे. इन दस्तावेजों से पता चलता है कि इस घोटाले की जानकारी सीएजी (कैग) को भी है. तो सवाल यह उठता है कि अब तक इस घोटाले पर सीएजी चुप क्यों है?
देश की खनिज संपदा, जिस पर 120 करोड़ भारतीयों का समान अधिकार है, को इस सरकार ने मुफ्त में अनैतिक कारणों से प्रेरित होकर बांट दिया. अगर इसे सार्वजनिक नीलामी प्रक्रिया अपना कर बांटा जाता तो भारत को इस घोटाले से हुए 26 लाख करोड़ रुपये के राजस्व घाटे से बचाया जा सकता था और यह पैसा देशवासियों के हितों में ख़र्च किया जा सकता था.
यह सरकार जबसे सत्ता में आई है, इस बात पर ज़ोर दे रही है कि विकास के लिए देश को ऊर्जा माध्यमों के दृष्टिकोण से स्वावलंबी बनाना ज़रूरी है. लेकिन अभी तक जो बात सामने आई है, वह यह है कि प्रधानमंत्री और बाक़ी कोयला मंत्रियों ने कोयले के ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को मुफ्त में बांट दिए. जबकि इस सार्वजनिक संपदा की सार्वजनिक और पारदर्शी नीलामी होनी चाहिए थी. नीलामी से अधिकाधिक राजस्व मिलता, जिसे देश में अन्य हितकारी कार्यों में लगाया जा सकता था, लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. जब इस मामले को संसद में उठाया गया तो सरकार ने संसद और लोगों को गुमराह करने का काम किया. सरकारी विधेयक लाने की बात कही गई, जिसके तहत यह नीलामी की जा सकेगी, लेकिन यह विधेयक चार साल तक लोकसभा में लंबित रखा गया, ताकि सरकार के जिन निजी खिलाड़ियों के साथ काले संबंध हैं, उन्हें इस दरम्यान कोयले के ब्लॉक जल्दी-जल्दी बांटकर ख़त्म कर दिए जाएं. इसमें कितनी रकम का लेन-देन हुआ होगा, यह ज़ाहिर सी बात है.
लेकिन अनियमितताएं यहीं ख़त्म नहीं हो जातीं. एक ऐसी बात सामने आई है, जो चौंका देने वाली है. सरकारी नियमों के अनुसार, कोयले के ब्लॉक आवंटित करने के लिए भी कुछ नियम हैं, जिनकी साफ़ अनदेखी कर दी गई. ब्लॉक आवंटन के लिए कुछ सरकारी शर्तें होती हैं, जिन्हें किसी भी सूरत में अनदेखा नहीं किया जा सकता. ऐसी एक शर्त यह है कि जिन खदानों में कोयले का खनन सतह के नीचे होना है, उनमें आवंटन के 36 माह बाद (और यदि वन क्षेत्र में ऐसी खदान है तो यह अवधि छह महीने बढ़ा दी जाती है) खनन प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए. यदि खदान ओपन कास्ट किस्म की है तो यह अवधि 48 माह की होती है. (जिसमें वन क्षेत्र हो तो पहले की तरह ही छह महीने की छूट मिलती है.) अगर इस अवधि में काम शुरू नहीं होता है तो खदान मालिक का लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है. समझने वाली बात यह है कि इस प्रावधान को इसलिए रखा गया है, ताकि खदान और कोयले का उत्खनन बिचौलियों के हाथ न लगे, जो सीधे-सीधे तो कोयले का काम नहीं करते, बल्कि खदान ख़रीद कर ऐसे व्यापारियों या
उद्योगपतियों को बेच देते हैं, जिन्हें कोयले की ज़रूरत है. इस गोरखधंधे में बिचौलिए मुंहमांगे और अनाप-शनाप दामों पर खदानें बेच सकते हैं. लेकिन सरकार ने ऐसी कई खदानों का लाइसेंस रद्द नहीं किया, जो इस अवधि के भीतर उत्पादन शुरू नहीं कर पाईं. ऐसा इसलिए, क्योंकि आवंटन के समय बहुत बड़ी मात्रा में ऐसे ही बिचौलियों को खदानें आवंटित की गई थीं, ताकि वे उन्हें आगे चलकर उद्योगपतियों को आसमान छूती क़ीमतों पर बेच सकें. अब यदि सरकार और बिचौलियों के बीच साठगांठ नहीं थी तो ऐसा क्यों किया गया? यह काम श्रीप्रकाश जायसवाल का है, लेकिन आज तक उन्होंने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है. 2003 तक 40 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें अब तक सिर्फ 24 ने उत्पादन शुरू किया है. तो बाक़ी 16 कंपनियों के लाइसेंस ख़ारिज क्यों नहीं किए गए? 2004 में 4 ब्लॉक बांटे गए थे, जिनमें आज तक उत्पादन शुरू नहीं हो पाया. 2005 में 22 ब्लॉक आवंटित किए गए, जिनमें आज तक केवल 2 ब्लॉकों में ही उत्पादन शुरू हो पाया है. इसी तरह 2006 में 52, 2007 में 51, 2008 में 22, 2009 में 16 और 2010 में एक ब्लॉक का आवंटन हुआ, लेकिन 18 जनवरी 2011 तक की रिपोर्ट के अनुसार, कोई भी ब्लॉक उत्पादन शुरू होने की अवस्था में नहीं है. पहले तो बिचौलियों को ब्लॉक मुफ्त दिए गए, जिसके लिए माइंस और मिनरल एक्ट में संशोधन को लोकसभा में चार साल तक रोके रखा गया. फिर जब इन बिचौलियों की खदानों में उत्पादन शुरू नहीं हुआ (क्योंकि ये उत्पादन के लिए आवंटित ही नहीं हुई थीं), तो भी इनके लाइसेंस रद्द नहीं किए गए. सरकार और बिचौलियों एवं फर्ज़ी कंपनियों के बीच क्या साठगांठ है, यह समझने के लिए रॉकेट साइंस पढ़ना ज़रूरी नहीं है. अगर ऐसा न होता तो आज 208 ब्लॉकों में से स़िर्फ 26 में उत्पादन हो रहा हो, ऐसा न होता.
इस सरकार की कथनी और करनी में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है. सरकार कहती है कि देश को ऊर्जा क्षेत्र में स्वावलंबी बनाना आवश्यक है. देश में ऊर्जा की कमी है, इसलिए अधिक से अधिक कोयले का उत्पादन होना चाहिए. इसी उद्देश्य से कोयले का उत्पादन निजी क्षेत्र के लिए खोलना चाहिए, लेकिन इस सरकार ने विकास का नारा देकर देश की सबसे क़ीमती धरोहर बिचौलियों और अपने प्रिय उद्योगपतियों के नाम कर दी. ऐसा नहीं है कि सरकार के सामने सार्वजनिक नीलामी का मॉडल नहीं था और ऐसा भी नहीं कि सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं था. महाराष्ट्र के माइनिंग डेवलपमेंट कॉरपोरेशन ने भी इस प्रक्रिया के चलते कोल इंडिया से कुछ ब्लॉक मुफ्त ले लिए. ये ब्लॉक थे अगरझरी, वरोरा, मार्की, जामनी, अद्कुली और गारे पेलम आदि. बाद में कॉरपोरेशन ने उक्त ब्लॉक निजी खिलाड़ियों को बेच दिए, जिससे उसे 750 करोड़ रुपये का फायदा हुआ. यह भी एक तरीक़ा था, जिससे सरकार इन ब्लॉकों को बेच सकती थी, लेकिन ब्लॉकों को तो मुफ्त ही बांट डाला गया. ऐसा भी नहीं है कि बिचौलियों के होने का सिर्फ कयास लगाया जा रहा है, बल्कि महाराष्ट्र की एक कंपनी जिसका कोयले से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं था, ने कोयले के एक आवंटित ब्लॉक को 500 करोड़ रुपये में बेचकर अंधा मुनाफ़ा कमाया. मतलब यह कि सरकार ने कोयले और खदानों को दलाल पथ बना दिया, जहां पर खदानें शेयर बन गईं, जिनकी ख़रीद-फरोख्त चलती रही और जनता की धरोहर का चीरहरण होता रहा.
प्रणब मुखर्जी ने आम आदमी का बजट पेश करने की बात कही, लेकिन उनका ब्रीफकेस खुला और निकला जनता विरोधी बजट. अगर इस जनता विरोधी बजट को भी देखा जाए तो सामाजिक क्षेत्र को एक लाख साठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित हुए. मूल ढांचे (इन्फ्रास्ट्रकचर) को दो लाख चौदह हज़ार करोड़, रक्षा मंत्रालय को एक लाख चौसठ हज़ार करोड़ रुपये आवंटित किए गए. भारत का वित्तीय घाटा लगभग चार लाख बारह हज़ार करोड़ रुपये का है. टैक्स से होने वाली आमद नौ लाख बत्तीस हज़ार करोड़ रुपये है. 2011-12 के लिए कुल सरकारी ख़र्च बारह लाख सत्तावन हज़ार सात सौ उनतीस करोड़ रुपये है. अकेले यह कोयला घोटाला 26 लाख करोड़ का है. मतलब यह कि 2011-2012 में सरकार ने जितना ख़र्च देश के सभी क्षेत्रों के लिए नियत किया है, उसका लगभग दो गुना पैसा अकेले मुनाफाखोरों, दलालों और उद्योगपतियों को खैरात में दे दिया इस सरकार ने. मतलब यह कि आम जनता की तीन साल की कमाई पर लगा टैक्स अकेले इस घोटाले ने निगल लिया. मतलब यह कि इतने पैसों में हमारे देश की रक्षा व्यवस्था को आगामी 25 साल तक के लिए सुसज्जित किया जा सकता था. मतलब यह कि देश के मूल ढांचे को एक साल में ही चाक-चौबंद किया जा सकता था. सबसे बड़ी बात यह कि वैश्विक मंदी से उबरते समय हमारे देश का सारा क़र्ज़ (आंतरिक और बाह्य) चुकाया जा सकता था. विदेशी बैंकों में रखा काला धन आजकल देश का सिरदर्द बना हुआ है. बाहर देशों से अपना धन लाने से पहले इस कोयला घोटाले का धन वापस जनता के पास कैसे आएगा?

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

भारत - अतीत, वर्तमान और भविष्य

भारत - अतीत, वर्तमान और भविष्य - सुरेश सोनी

Bharat - Atit, Vartaman aur Bhavishya

सोमवार, 4 अक्टूबर 2010

ग्राम स्वराज्य ही विश्व मंगल का आधार

GandhiJIअब ऐसा स्वीकार किया जाने लगा है कि विश्व में मानवीय मूल्यों के हो रहे ह्रास, नकारात्मक वृत्तियों के विकास का कारण ग्राम संस्कृति और ग्राम की स्वायतता का नष्ट हो जाना ही है। यह बात केवल भारत के संदर्भ में ही नहीं कही जा रही बल्कि इसे पूरे विश्व के संदर्भ में भी कहा जा सकती है। आज यूरोप में इस बात पर सर्वाधिक चिंता व्यक्त की जा रही है कि वहां हिंसा बढ रही है। छोटी उम्र के बच्चे ही अपराध कार्यों में फंस रहे हैं। परिवारों में आपसी रिश्ते टूट रहे हैं जिसके कारण परिवारों के अस्तित्व पर ही संकट की स्थिति आ गई है। भोगवादी प्रवृत्ति बढ रही है तमाम तकनीकी उन्नति के बावजूद व्यक्ति पशुता की ओर जा रहा है। यूरोप में तो नगरीकरण की प्रक्रिया इतनी तेजी से बढी है कि वहां ग्रामों के लोप होने का खतरा पैदा हो गया है। उसके देखा-देखी एशिया के अनेक देशों में भी नगरीकरण की प्रक्रिया ग्रामों को लीद रही है। थाईलैण्ड में तो मानो सारे देश की आबादी राजधानी बेंकॉक में ही सिमटने का प्रयास कर रही है। यही स्थिति मलेशिया की है। अब ये तमाम प्रवृत्तियां भारत में भी दिखाई देने लगी हैं। इसलिए भारत में अनेक प्रबुद्ध लोग देश के सांस्कृतिक भविष्य को लेकर चिंता प्रकट कर रहे है।

यूरोप में ग्राम और परिवार के विघटन व नगरों के असमाजिक जीवन की शुरूआत औद्योगिक क्रान्ति से मानी जा सकती है। इस प्रक्रिया को तेज करने में प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की इन युद्धों से यूरोप के लोगों को जीवन के क्षण भंगुर होने का अहसास बहुत तेजी से हुआ और भय की इस काली छाया में भोग की पाश्विक वृत्तियां जागृत हुईं। औद्योगिकरण की यह प्रक्रिया ज्यों-ज्यों भारत में फैलती गई त्यों-त्यों उससे जुडी तमाम बिमारियों का यहां आना भी स्वाभाविक ही था। कृषि प्रधान आर्थिक व्यवस्था में ग्राम एक ईकाई के रूप में सुरक्षित ही नहीं रहता बल्कि परिवार की संस्था भी अपनी उपयोगिता बनाए रखता है। कृषि आधारित व्यवस्था में संयुक्त परिवार ज्यादा उपयोगी माने जाते हैं और सामाजिक संस्कृति के मूलाधार सुरक्षित रहते हैं। कृषि आर्थिकता में गाय की उपयोगिता सर्वाधिक होती है। यदि इसको और व्यापकता में कहा जाए तो कृषि और पशु परस्पर आधारित है और दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। फिर गाय तो भारत में केवल आर्थिकता से जुडी हुई नहीं है, बल्कि देश के सांस्कृतिक परिवेश में भी उसका गहरा स्थान है। परन्तु जब धीरे-धीरे छोटे किसान समाप्त होने लगे और उनके स्थान पर हजारों एकड के जमींदार या उद्योगपति आ गए तो उन्होंने कृषि करण को ही मशीनों और मजदूरों के प्रयोग से एक बडे उद्योग में ही बदल दिया। इससे कृषि कार्य में से सृजन का आनन्द समाप्त हो गया। गाय और अन्य पशु अनुपयोगी हो गए और गांव की आर्थिकता की रीढ की हड्डी टूट गई। यूरोप में बडे स्तर पर पशु वध शुरू हो गया और भारत में गोवंश की दुर्दशा सबके सामने है। गोग्राम की प्रासांगिता पर प्रश्नचिह्न लग जाने से भारत का मंगल या फिर विश्व मंगल की कल्पना भला कैसे की जा सकती थी?

महात्मा गांधी ने शायद इस स्थिति को बहुत पहले ही पहचान लिया था वे भविष्यद्रष्‍टा थे। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में ही हिन्द स्वराज लिख कर इस बात पर जोर देना शुरू कर दिया था कि भविष्य के भारत के विकास का मूलाधार ग्राम स्वराज ही हो सकता है। गऊ के बारे में गांधी की चिंता तो सर्वज्ञात ही है गौरक्षा के लिए वे किसी भी सीमा तक जाने को तैयार थे गांधी के सपनों का भारत वह था जिसमें स्वावलंबी गांव सबसे छोटी ईकाई हो नगरीकरण का गांधी जी विरोध करते थे, यही कारण था कि वे बडी मशीनों के खिलाफ थे। वे जानते थे कि बडी मशीन गांव को खाएगी और नगरों में झुग्गी-झोपडियों का जंगल खडा करेगी गांधी जी का मानना था कि मशीन मानव मंगल के लिए है न के मानव को गुलाम बनाने के लिए। गांधी जी ऐसा मानते थे कि भारत का सांस्कृतिक प्रवाह ग्राम से होकर जाता है। यदि ग्राम उजड गया या फिर स्वावलंबी न रहा तो संस्कृति की यह अविछिन्न धारा अपने आप सूखने लगेगी। दीन-हीन ग्राम या फिर याचक की मुद्रा में खडा ग्राम भारत का आधार नहीं बन सकता। भारत का आधार तो स्वावलंबी ऊर्जा वान ग्राम ही बन सकता है। दुर्भाग्य से गांधी के उत्तराधिकारी पण्डित जवाहर लाल नेहरू की इस ग्राम स्वराज्य में कोई आस्था नहीं थी इसलिए नेहरू ने हिन्द स्वराज को गांधी के सामने ही अप्रासांगिक करार दिया था नेहरू मानते थे आधुनिक युग में जिस मशीनी क्रान्ति की शुरूआत हुई है उसमें ग्राम स्वराज्य की कल्पना करना ही दखियानूसी है। गौरक्षा की बात उनकी ह्ष्टि में मजहबी कट्टरता से ज्यादा कुछ नहीं थी।

लेकिन इसे अजब संयोग मानना होगा कि यूरोप के कई देशों ने तथाकथित आधुनिकता की बिमारियों से छुटकारा पाने के लिए हिन्द स्वराज पर गंभीरता से चर्चा हो रही है। यूरोप में वैकल्पिक अर्थशास्त्र की तलाश में जुटे विद्वानों ने हिन्द स्वराज को विश्व मंगल के लिए प्रासांगिक माना है। यह वर्ष हिन्द स्वराज के सौ साल पूरे होने का वर्ष है। और यह अजीव संयोग है कि इसी वर्ष भारत के लोग देश भर में विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा का आयोजन कर रहे हैं। इस यात्रा का मूलाधार भी ग्राम का स्वराज्य और गौवंश की रक्षा ही है। एक बात और ध्यान में रखनी होगी कि इस यात्रा ने गौ और ग्राम को आधार बनाकर भारत मंगल की कामना नहीं कि है बल्कि विश्व मंगल की कामना की है। यहां एक और मुद्दे पर भी ध्यान देना होगा नए अर्थशास्त्र में बडी मशीन उत्पादन को बढाती है और आधुनिकता की अधकचरी समझ इस उत्पादन के ज्यादा से ज्यादा भोग को ही सुख और मंगल का कारण मानती है। जबकि सुख और मंगल की यह अवधारण वास्तविकता से कोसों दूर है। भोग सुख का एक कारक हो सकता है लेकिन वह एकमात्र कारक नहीं है । सुख के अनेक अन्य कारक भी हैं लेकिन आधुनिक अर्थशास्त्र के विद्वान इन अन्य कारकों का नोटिस लेने के लिए तैयार नहीं है। उनका तर्क यह है कि इन कारकों को किसी भी ढंग से नापा नहीं जा सकता। लेकिन यह तर्क भीतर से खोखला है आप किसी चीज को नाप नहीं सकते इसका अर्थ यह नहीं है कि उसका अस्तित्व ही नहीं है। यह मनुष्य जीवन की, उसके सुख और मंगल की एक पक्षीय विवेचना है। दीन दयाल उपाध्याय और महात्मा गांधी ही समग्र एकात्म विकास की चर्चा करते थे। उसी से विश्व मंगल की अवधारण उत्पन्न होती है।

आज जबकि पूरा विश्व चौराहे आ खडा हुआ है भौतिक उन्नति ने उसे विनाश के रास्ते पर मोड दिया है। ग्राम का विनाश तो हो ही चुका है अब मानव अपने विनाश की राह पर चल रहा है। ऐसे मौके पर भारत में शुरू होने वाली यह विश्व मंगल गौ ग्राम (यह यात्रा 30 सितम्बर को कुरूक्षेत्र से प्रारम्भ होगी।) यात्रा सम्पूर्ण विश्व में एक नई बहस को जन्म देगी ऐसा माना जा सकता है। ‘चलो ग्राम की ओर’ का यह नारा वास्तव में एक बार फि र मंगलमय, सुख-समृद्धि और सम्पन्न भारत की कामना करता है। इस कामना के दो ही मूल स्तम्भ है गौ और ग्राम और दोनों एक-दूसरे से गर्भनाल से बंधे हुए हैं। पिछली शताब्दी के उत्तरार्ध में जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रान्ति का उद्धोष किया था उस उद्धोष के चलते सत्ता परिवर्तन तो हुआ लेकिन समग्र क्रान्ति का सपना टूट गया। विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा यह आह्वान भी एक नई क्रान्ति का द्योतक है। परन्तु यह क्रान्ति समग्र क्रान्ति से भी गहरी क्रान्ति होगी। क्योंकि इसमें भारतीय संस्कृति के मूलाधारों को प्रस्थापित करने का प्रयास होगा।

- कुलदीप चंद अग्निहोत्री

गुरुवार, 30 सितंबर 2010

गाय के गोबर से कागज बनाने में सफलता

भारत में गाय के गोबर से कागज बनाने के शोध् का श्रेय डॉ. अनुराधा नाम की एक युवती को जाता है। अनुराधा विशाखापट्टणम्‌ की रहने वाली हैं। इन दिनों वह राजमुंद्री के एक महाविद्यालय में अध्यापन का काम कर रही है। आंध्र विश्वविद्यालय के प्रोपफेसर पुल्लाराव के मार्गदर्शन में अनुराध ने इकोनॉमिक्स ऑफ एजुकेशन में डॉक्टरेट की डिग्री प्राप्त की है। अनुराधा जी का कहना है कि जब विशाखापट्टणम्‌ में उनकी भेंट डॉ. मदनमोहन बजाज से हुई, तो वे गाय के संबंध् में सोचने लगीं। डॉ. बजाज ने अपने शाकाहार संबंधी व्याख्यान में भारतीय गायों की दुर्दशा का अत्यंत ही भावुक शब्दों में वर्णन किया। उन्होंने कहा कि जब तक गाय के साथ अर्थव्यवस्था नहीं जुड़ती, गाय का देश में उद्धार नहीं हो सकता है।( ---- )छोड़ दिया गया भाग गाय के गोबर में फाइबर होने के कारण डॉ. अनुरोधा ने सोचा कि यह कागज का कच्चा माल हो सकता है। फ़िर क्या था, उन्होंने गाय के गोबर के साथ अन्य रसायन और कुछ दूसरी वस्तुओं का मिश्रण किया। लगातार प्रयोग करने के बाद वे कार्ड बोर्ड बनाने में सफल हो गईं, लेकिन उनका उद्देश्य तो लिखने का कागज बनाना था, इसलिए वह अपने प्रयोग करती रहीं।

पहले पहल कागज टूट जाता था, लेकिन उसे जोड़ने का मार्ग भी उन्होंने खोज लिया। अब बाजार में उपलब्ध् कागज जैसा उनका कागज बनकर तैयार हो गया। अब तक तो वे सारा काम हाथ से कर रही हैं। छोटी-बड़ी मशीनें जुटाकर उसका प्रयोग किया, लेकिन अब वे सोच रही हैं कि उसकी मशीनें मुझे मिल जाएँ, तो उसका उत्पादन बड़े पैमाने पर किया जा सकता है। अनुराधा का कहना था कि पहला प्रयोग सपफल होते ही नमूना मैंने डॉ. बजाज को भिजवा दिया। डॉ. अनुराधा का कहना है कि यदि काम बड़े पैमाने पर हुआ, तो एक दिन गाय का गोबर सौ रुपये किलो बिकेगा। इस क्रांति के पश्चात्‌ गऊ माता देश की अर्थव्यवस्था का मजबूत स्तंभ बन जाएगी। देश और दुनिया इस उपयोगी पशु को मरते दम तक अपने सीने से लगा कर रखेगी। कागज के लिए जब गोबर का उपयोग होने लगेगा, उस दिन सारा देश कहेगा यह गोबर नहीं वास्तव में गो वर है, जो हमें समृद्ध और संपन्न बनाएगा।
नई दिल्ली से प्रकाशित राजधर्म' के फरवरी 2009 ई. के अंक में प्रकाशित लेख से साभार

बुधवार, 29 सितंबर 2010

भारतीय वैज्ञानिकों के शोधानुसार गौ हत्या से आता है भूकम्प!




रविवार, 06 दिसम्बर 2009
चिड़ावा, 07 दिसम्बर।
विश्व मंगल गौ ग्राम यात्रा के तहत निकाली जा रही तहसील गौ ग्राम यात्रा के दूसरे दिन सोमवार को गोविंदपुरा व मंड्रेला में सभाओं का आयोजन किया गया। गांव गोविंदपुरा में तहसील संयोजक महेंद्र सैनी ने ग्रामीणो को सम्बोधित करते हुए कहा कि गौ हत्या से भूंकप आता है। उन्होंने बताया कि सितम्बर 1994 में सोबियत संघ की ओर से अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था इसमें भारत के तीन वैज्ञानिको ने भाग लिया। दिल्ली विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. मदनमोहन बजाज, इबाहिम व विजय राज सिंह ने सम्मेलन में शोध पत्र पेश किया। जिसमें साबित किया गया कि एक गौ माता के कटने से 1 हजार 40 मेघावाट से यादा ऊर्जा निकलती है तथा इसी के कारण भूंकप आता है। वैज्ञानिको के इस शोध पत्र को विज्ञान जगत में 20 थ्योरी ऑफ अर्थ व्कैक्स के नाम से जाना जाता है। मंड्रेला में मुख्य वक्ता हरिप्रसाद नरहड़िया ने भी गौ माता के बचाने की अपील करते हुए इस अभियान में सहयोग करने की बात कही। इस दौरान योगानंद आश्रम चिड़ावा के महंत मंगलनाथ महाराज के सानिध्य में गौ की पूजा-अर्चना की गई। इस अवसर पर राजेंद्र टेलर, बजरंग दल के विनोद सैनी, महावीर जादाम, रघुवीर मेहरा, धमेंद्र लाखू सहित ग्रामीणजन उपस्थित थे।
दर्जनभर से अधिक गांवो में किया दौरा: तहसील संयोजक महेंद्र सैनी ने बताया कि यात्रा के दूसरे दिन दर्जनभर से अधिक गांवो में दौरा किया गया। गांव केहरपुरा से आरम्भ होकर गोविंदपुरा, मालूपुरा, मोहनपुरा, कंवरपुरा, बख्तावरपुरा,भामरवासी, अलीपुर, खुडाना, बुडानिया आदि गांवो से होती हुई यात्रा निकली। यात्रा के दौरान गौ सरंक्षण एवं सर्वधन की अपील की गई।
यात्रा का कार्यक्रम: तहसील संयोजक महेंद्र सैनी ने बताया कि आज मंगलवार को डाबड़ी, सैनीपुरा, बजावा, कुलडिया का बास, खुडिया, धूमनसर, झेरली, रायला आदि गांवो में यात्रा जाएंगी। यात्रा के तीसरे दिन का समापन पिलानी में किया जाएगा।

अनुसरणकर्ता