रविवार, 8 जनवरी 2012

पंचगव्य चिकित्सा और भारतीय गौवंश



भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद परम्परा में अनादी काल से गो का स्थान अत्यंत महत्व का रहा है. पञ्च गव्य के नाम से जाने गए गो उत्पादों का प्रयोग चिकित्सा हेतु व जीवन की विविध गतिविधियों में होता आया है. वेद, उपनिषद्, पुरानों में इनका वर्णन बड़े विस्तार व व्यापक रूप में मिलता है. गो की उत्पत्ति के आधुनिक सिद्धांत हमारे प्राचीन साहित्य से मेल नहीं खाते. वैसे भी अनेक प्रमाणों से सिद्ध हो चुका है कि पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय संस्कृति की प्राचीनता व श्रेष्ठता को कम व हीन दिखाने के लिए अनेक तथ्यों को छुपाया, विकृत किया व बारम्बार झूठ का सहारा लिया है. इसके अनेकों प्रमाणों को श्री परशुराम शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ”भारतीय इतिहास का पुनर लेखन, एक प्रवंचना” में देखा जा सकता है. यह पुस्तक बाबा साहेब आप्टे स्मारक समिति, दिल्ली द्वारा प्रकाशित है. अतः गो की उत्पत्ती के विषय में प्रचलित आधुनिक सिद्धांत पर संदेह करने के ठोस कारण हमारे पास उपलब्ध हैं. ये सिद्धांत उन्ही यूरोपीय विद्वानों के घड़े हुए हैं जिनकी नीयत सही न होने के ढेरों प्रमाण परशुराम जी के इलावा पी.एन.ओक, पद्मश्री वाणकर, हेबालकर शास्त्री, बायर्न स्टीरना, एडवर्ड पोकाक, नाकामुरा आदि अनेक विश्व प्रसिद्ध विद्वानों ने दिए हैं. अतः गो की उत्पत्ती और उपयोगिता के भारतीय साहित्य में वर्णित पक्ष को पश्चिम के प्रभाव से मुक्त होकर ; आस्था व गंभीरता से जांचने- परखने की आवश्यकता है.
आज की भारत की परिस्थितियों में भारत की सबसे बड़ी समस्या ” भारतीयों की अपनी सामर्थ्य के प्रति आस्था की कमी है” जिसकी ओर स्वामी विवेकानंद से लेकर डा. अबदुलकलाम तक ने बार-बार इंगित किया है. अतः यह निवेदन करना ज़रूरी है कि हम जब गो की विभूतियों पर चर्चा या कोई प्रयोग करें तो युरोपीय साहित्य को पढ़ कर बनी अश्रधा पूर्ण मानसिकता से सावधानीपूर्वक मुक्त हो लें. अन्यथा हम वही सब करते जायेंगे, वही दोहराते जायेंगे जो कि हमें समाप्त करने के लिए, हमसे करवाने का प्रबंध यूरोपियों ने शिक्षा तंत्र और मीडिया के माध्यम से किया हुआ है.
. जब हम पंचगव्य चिकित्सा की बात करेंगे तो सबसे पहले यह देखना होगा कि किस गो के उत्पादों का प्रयोग किया जाना है. हमारे चकित्सक जगत के वैद्य, व विद्वान चिकित्सकों को कई बार बड़ी दुविधा का सामना करना पड़ता है जब उन्हें पंचगव्य चिकित्सा के उतने अछे परिणाम नहीं मिलते जितने कि हमारे शास्त्रों में वर्णित हैं. कई बार तो परिणाम मिलते ही नहीं. देखने-समझने की आवश्यकता है कि इसके क्या कारण हैं.
. सन १९८४ से चल रही अनेक आधुनिक खोजों से प्रमाणित हो चुका है कि विश्व में दो प्रकार का गोवंश है. एक के सभी उत्पाद अनेकों रोगों के जनक हैं और एक के उत्पाद अनेक रोगों को समाप्त करने वाले हैं. हैरानी की बात है कि २५-२६ साल पुरानी इन महत्वपूर्ण खोजों से हमारा देश पूरी तरह अनजान है. डा. राकेश पंडित जी के मार्ग दर्शन के कारण मुझे २०१० में दिल्ली में ‘ राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ ‘ की एक संगोष्ठी में भाग लेने का अवसर मिला. सारे भारत के उच्च कोटि के आयुर्वेद के विद्वान इस संगोष्ठी में आये हुए थे. विडंबना देखिये कि इन सब में एक भी वैद्य ऐसा नहीं था जो गोवंश के इस अंतर के बारे में जानता हो. स्नेहन के लिए स्वदेशी या विदेशी किस गो के घृत का प्रयोग करना है, इस बारे में सभी अनभिज्ञ थे ; ऐसा राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ के निर्देशक महोदय ने स्पष्ट माना. पिछले अनेक वर्षों से हम लोग केंद्र और हिमाचल प्रदेश के पशुपालन विभाग के संपर्क में आ रहे हैं. वहाँ भी कोई चिकित्सक गो वंश पर हुई इन खोजों के बारे में कुछ नहीं जानता. परिणाम स्वस्रूप पशुपालन विभाग और सरकार देश का हजारों करोड़ रुपया नष्ट कर के अमृत मय गुणों वाले स्वदेशी गोवंश को नष्ट कर रही है और विदेशी विषकारक गोवंश को ‘गोवंश सुधार’ के नाम पर बढ़ा रही है. इससे पता चलता है कि हमारे देश के शासकों, नेताओं, वैज्ञानिकों की जानकारी कितनी सीमित है और अपने देश के हितों को लेकर वे कितने लापरवाह है. यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि देश के कृषि, चिकित्सा, अन्तरिक्ष विज्ञान अदि विषयों के वैज्ञानिक भी इसी प्रकार अनजान होंगे जिस प्रकार गो विज्ञान और पशु विज्ञान के बारे में हैं. एक यह बात भी ध्यान में आती है कि विश्व के विकसित देश उपयोगी खोजों को हमसे किस प्रकार छुपा कर रखते हैं अतः वे कितने विश्वसनीय हैं, इसपर भी हमें सोचना चाहिए. यह सब समझे बिना हम अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा कैसे कर सकेंगे, देश को आगे कैसे बढ़ा सकेंगे ?
आधुनिक खोजों के अनुसार गोवंश के दो प्रकार के वर्गीकरण बारे में प्राप्त जानकारी इस प्रकार है ——-
स्वदेशी, विदेशी गौवंश का अन्तर
विदेशी गौवंश ‘ए-1’
अनेक खोजो से साबित हुआ है कि अधिकांश विदेशी गौवंश विषाक्त है। आकलैण्ड की ‘ए-2, कार्पोरेशन तथा प्रसिद्ध खोजी विद्वान ‘डा. कोरिन लेक् मैकने’ की खोजों के अनुसार ‘ए-1’ प्रकार की गौ के दूध में ‘बीटा कैसीन ए-1, पाया गया है जिससे हमारे शरीर में ‘आई जी एफ-१ ( इन्सुलिन ग्रोथ हार्मोन-१) अधिक निर्माण होने लगता है। ‘आई जीएफ-1’ से कई प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिल चुके हैं।
इसके ईलावा-
‘ हैल्थ जनरल’ न्यूजीलैण्ड के अनुसार ‘ए-1’ दूध से हृदय रोग मानसिक रोग, मधुमेह, गठिया, आॅटिज्म (शरीर के अंगो पर नियंत्रण न रहना) आदि रोग होते हैं। सन् 2003 में ‘ए-2’ ‘कार्पोरेशन’ द्वारा किए सर्वेक्षण से पता चला है कि इन गऊओं के दूध् से स्वीडन, यूके, आस्ट्रेलिया, न्यूजिलेंड में हृदय रोग, मधुमेह रोगों में वृद्धि हुई है। फ्रांस तथा जापान में ‘ए-2’ दूध् से इन रोगों में कमी दर्ज की गई है। प्रशन है कि हानिकारक ‘ए-1’ तथा लाभदायक ए-2 दूध् किन गऊओं में है ?
पश्चिमी वैज्ञानिकों के अनुसार ७०% हालिस्टीन, रेड डैनिश और फ्रिजियन गऊएं हानिकारक ‘ए-1’ प्रोटीन वाली है। जर्सी की अनेक जातियां भी इसी प्रकार की है। पर यह स्पष्ट रूप से कोई नहीं बतला रहा कि लाभदायक ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं कौन सी है, कहां है स्वयं जरा ढूंढ़ें। विचार करें!!
ब्राजील में लगभग 40 लाख भारतीय गौवंश तैयार किया गया हैं और पूरे यूरोप में उसका निर्यात हो रहा है।
इनमें अधिकांश गऊएं भारतीय गीर नस्ल और शेष रैड सिंधी तथा सहिवाल हैं। यह सब जानने के बाद यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि उपयोगी ‘ए-2’ प्रोटीन वाली गऊएं भारतीय है ? यूरोपीय देश कितने कपटी हैं जो इस प्रकार की महत्वपूर्ण जानकारी हमसे अनेक दशकों तक छुपा कर रखते हैं. इतना ही नहीं अपनी मुसीबतें हम पर थोंपने का भरपूर पैसा भी हमसे वसूल करते हैं. क्या ऐसा अन्य अनेक विषयों में भी नहीं हो रहा होगा ? अनेकों बार इस प्रकार की जानकारी सामने है जिसे दबा दिया गया.
ऐसे में यदि यह संदेह करना गलत न होगा कि पशुपालन विभाग का दुरूपयोग करके, करोड़ रु. अनुदान देकर, पशु कल्याण के नाम पर भारतीय गौवंश को नष्ट करने की गुप्त योजना पश्चिमी ताकतें चला रही हैं. भोले भारतीयों को उनका आभास तक नहीं है। दूध् बढ़ाने और वंश सुधार के नाम पर भारतीय गौवंश का बीज नाश ‘कृत्रिम गर्भाधन’ करके कत्लखानों से कई गुणा अधिक आपकी सहमति, सहयोग से, आपके अपने द्वारा हो रह है। धन व्यय करके कृत्रिम गर्भाधन से अपने अमूल्य ‘ए-2’ गौवंश को हम स्वयं नष्ट कर रहें हैं। गौवंश विनाश यानी भारत का विनाश। चिकित्सा का अद्भुत साधन व कृषि का अनुपम आधार समाप्त हो रहा है.
विषाक्त विदेशी गौवंश से बने संकर भारतीय गौवंश से प्राप्त किया घी, दूध्, दही ही नही, गोबर, गौमुत्र, स्पर्श और निश्वास भी विषाक्त होगा न ? इन दुग्ध् पदार्थो से हमारा और हमारी संतानों का स्वास्थ्य बरबाद नही हो रहा क्या ? इनके गोबर, गौमूत्र से बनी खाद और पंचगव्य औषधिया भी परम हानिकारक प्रभाव वाली होगी। हमारी खेती नष्ट होने, पंचगव्य औषधियों के असफल होने, घी, दूध्, दहीं खाने-पीने पर भी स्वास्थय में सुधार होने की बजाए बिगाड़ का बड़ा कारण यह संकर गौवंश है, इसमें संदेह का कोई कारण नहीं.
समाधान सरल है :-
वर्तमान संकर नसल का गौवंश ‘ए-1’ तथा ‘ए-2’ के संयुक्त गुणों वाला है। इनमें ५०% से ६०% दोनो गुण हों तो स्वदेशी गर्भधन की व्यवस्था से अगली पीढ़ी में ‘ए-1’ २५% दूसरी बार १२% तथा तीसरी बार ६% रह जाएगा। बिगाड़ने वालों ने सन् 1700 से आज तक 300 साल धैर्य से काम किया, हम 10-12 साल प्रयास क्यों नही कर सकते? करने में काफी सरल है।
समस्या का विचारणीय पक्ष एक और भी है.
दूध् बढ़ाने के लिये दिए जाने वालो ‘बोविन ग्रोथ हार्मोन’ या ‘आक्सीटोसिन’ आदि के इंजैक्शनो से अनेक प्रकार के कैंसर होने के प्रमाण मिले हैं । इन इंजैक्शनों से दूध् में आई जी एफ-1 ;इन्सुलीन ग्रोथ फैक्टर-1 नामक अत्यधिक शक्तिशाली वृद्धि हार्मोन की मात्रा सामान्य से बहुत अधिक बढ़ जाती है और मुनष्यों में , स्तन, कोलन, प्रोस्टेंट, फेफड़ो, आतों, पैक्रिया के कैंसर पनपने लगते हैं।
इलीनोयस विश्वविद्यालय के ‘डा. सैम्यूल एपस्टीन’ तथा ‘नैशनल इंस्टीटयुट’ आॅफ हैल्थ;अमेरीकाद्ध जैसी अनेक संस्थाओं और विद्वानों ने इस पर खोज की है।
ध्यान दें कि जिस हार्मोन के असर से मनुष्यों को कैंसर जैसे रोग होते हैं उनसे वे गाय-भैंस गम्भीर रोगो का शिकार क्यों नही बनेगे ? आपका गौवंश पहले 15-18 बार नए दूध् होता था, अब 2-4 बार सूता है। गौवंश के सूखने और न सूने का प्रमुख कारण दूध् बढ़ाने वाले हार्मोन हैं। आज लाखों गउएं सड़कों पर भटक रही हैं और उनका दूध् सूख गया है तो इसका बहुत बड़ा कारण ये दूध् बढाने वाले हारमोन हैं, इसे समझना होगा।
गौपालकों को भारत की वर्तमान परिस्थियों में अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं का एक आयाम गौवंश चिकित्सा है। एलोपैथी चिकित्सा के अत्यधिक प्रचार का शिकार बनकर हम अपनी प्रमाणिक पारम्परिक चिकित्सा को भुला बैठे हैं। परिणामस्वरूप चिकित्सा व्यय बहुत बढ़ गया और दवांओं के दुष्परिणाम भी भोगने पड़ रहें हैं। दवाओं से विषाक्त बने मृत पशुओं का मांस खाकर गिद्धों की वंश समाप्ति का खतरा पैदा हो गया है।
जरा विचार करें कि इन दवाओं के प्रभाव वाला दूध्, गोबर, गौमूत्रा कितना हानिकारक होगा। इन दवाओं के दुष्प्रभावों से भी अनेकों नए रोग होते हैं, जीवनी शक्ति घटती चली जाती है।
आधुनिक विज्ञान के आधार पर स्वदेशी और विदेशी गोवंश के अंतर को समझलेना ही पर्याप्त नहीं. भारतीय इतिहास व संस्कृति के प्रति विद्वेष व अनास्था रखनेवाली पश्चिमी दृष्टी के आधार पर भारतीय साहित्य व दर्शन को ठीक से नहीं समझा जा सकता. गो के आध्यात्मिक व अलौकिक पक्ष को जानने-समझने के लिए भारतीय विद्वानों व भारतीय साहित्य का सहारा लेना ही पडेगा. यहाँ यह दोहरा देना प्रासंगिक होगा कि पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से उपजी मानसिकता से मुक्ति पाए बिना हम अपने साहित्य में वर्णित सामग्री के अर्थ समझने योग्य नहीं बन पायेंगे. आयुर्वेदिक चिकित्सकों द्वारा भारी मात्रा में हानिकारक एलोपैथिक दवाओं का प्रयोग पश्चिम के प्रचारतंत्र से उपजी हीनता का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है. योजनाबद्ध ढंग से आयुर्वेद के पाठ्यक्रम को विकृत किये जाने के कारण भी ऐसा हुआ हो सकता है.
अस्तु गोवंश के अंतर को थोड़ा समझ लेने के बाद अब पंचगव्य चिकित्सा की चर्चा उचित होगी. सामान्य रूप से प्रचलित पंचगव्य चिकित्सा पर ६ पृष्ठों की सामग्री वितरण हेतु उपलब्ध करवाई जा रही है. अतः उन प्रयोगों पर बात न करते हुए कुछ ऐसे प्रयोगों पर चर्चा करना उचित होगा जो थोड़े असामान्य प्रकार के हैं. निसंदेह जब भी गो उत्पादों की हम बात करेंगे तो वह शुद्ध भारतीय गोवंश के सन्दर्भ में होगी. जिस गो में जितना भारतीय अंश कम होगा, उसके परिणाम भी उतने कम होंगे. विदेशी गोवंश के प्रभाव से कुछ हानि की आशंका भी हो सकती है. गभीर रोगों की चिकित्सा में पंचगव्य का प्रयोग करते समय यह भी ध्यान रखना होगा कि गो को रासायनिक फीड या अन्य रसायन युक्त आहार न दिया जा रहा हो.
१. यदि गो के गोबर का लगभग ३-४ इंच लंबा और १-२ इंच चौड़ा टुकडा गो घृत लगा कर प्रातः- सायं धूप की तरह जलाया जाये तो इससे लगभग सभी फंगस, रोगाणु, कीटाणु सरलता समाप्त हो जाते हैं. इसके ऊपर एक-दो दाने दाख, मुनक्का या गुड का छोटा सा टुकड़ा रख दें तो प्रभाव और अधिक बढ़ जाता है. अर्थात सभी कीटाणु जनित रोग इस सरल से प्रयोग से सरलता से नियंत्रित हो सकते हैं. यहां तक कि तपेदिक तक के रोगाणु इस छोटे से प्रयोग से नष्ट हो जायेंगे. नियमित रूप से गोबर की इस धूप के प्रयोग के कारण रासायनिक सुगंधों वाली धूप के कारण पैदा होने वाले अनेकों मानसिक और शारीरिक रोगों से भी बचाव हो जाएगा.
२. रात को सोते समय गोघृत का स्नेहन करने ( लगाने से ) अनेकों रोगों से रक्षा होती है. पाँव के तलवों, गुदाचक्र ( एक इंच गहराई तक ) , नाभि, नाक, आँख और सर में सोते समय और प्रातः काल यदि गो घृत लगाएं तो शरीर के सारे अंग, मस्तिष्क, ऑंखें स्वस्थ बने रहते हैं. स्मरण शक्ती आयु बढ़ने के साथ कम होने के स्थान पर निरंतर बढ़ती रहती है. कभी ऐनक नहीं लगती और न ही कभी मोतियाबिंद जैसे रोगों के होने की संभावना होती है.
३. अधरंग के रोगी को गोघृत की नसवार देने से अद्भुत परिणाम मिलते हैं. तत्काल नसवार देने से रोगी उसी समय ठीक होता है और पुराने रोगी को नियमित नसवार देने से चंद मास में वह रोगी ठीक होजाता है. आश्चर्य की बात तो यह है कि मर चुके स्नायुकोश भी फिर से बन जाते हैं जिसे कि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में असंभव समझा जाता है. इसका अर्थ तो यह हुआ कि एल्ज़िमर्ज़ डिसीज़, पार्किन्सन डिसीज़, मधुमेह से मृत कोष, हृदयाघात से ह्रदय की क्षतिग्रस्त कोशिकाए पुनः बन जायेंगी. ऑटिज्म. मिर्गी अदि अनेकों असाध्य समझे जाने वाले रोगों में गो घृत प्रयोग के अद्भुत परिणाम हो सकते हैं. आवश्यकता है कि इस पर धैर्य के साथ शोध कार्य करने की आवश्यकता है.
४. मुम्बई के एक कैंसर के रोगी को चिकित्सक ने जवाब दे दिया और कहा कि १२-१४ दिन का जीवन शेष है. लीवर का कैंसर था जो बहुत अधिक फ़ैल जाने के कारण शल्य चिकित्सा संभव नहीं रही थी. वह रोगी लिखता है कि घर आकर उसने बेर के बराबर गोबर और २५-३० मी.ली. गोमूत्र को घोल कर कपडे में छाना और पीकर सो गया. कुछ देर बाद उसे भयंकर बदबू वाला पाखाना हुआ और गहरी नीद आ गयी. सोकर उठा तो कई दिन बाद उसे भूख लगी. रोगी को अंगूर का ताज़ा रस दिया गया. स्मरणीय है कि उन दिनों अंगूर बिना विषयुक्त स्प्रे के मिल जाता था. २१ दिन यही चिकित्सा चली. रोगी को लगा कि वह रोग मुक्त हो चुका है. शरीर में शक्ती और चेहरे पर अच्छी रौनक आगई थी. वह अपने चिकित्सक के पास गया तो उसे विश्वास हे नहीं आया कि यह वही कैंसर का रोगी है. प्राथमिक जांच में वह पूरी तरह कैंसर मुक्त नज़र आ रहा था. कोई लक्षण नहीं था जिससे वह रोगी लगता.
अंत में इतना निवेदन है कि आज संसार का सञ्चालन परदे के पीछे से जो शक्तियां कर रही हैं उनमें सबसे बड़ी भूमिका दवा निर्माता कंपनियों की है. वे इतनी शक्तिशाली और कुटिल हैं कि अपनी दवाओं के बाज़ार को बढाने व लाभ कामाने के लिए हर प्रकार के अनैतिक, अमानवीय हथकंडे अपनाती हैं. बहुत संभव है कि जिस प्रकार वे संसार भर के चिकित्सा शोध, स्वास्थ्य योजनाओं और पाठ्यक्रमों को अपने अनुसार चलाती है; उसी प्रकार अपने रास्ते में बाधा बनने वाले भारतीय गोवंश की समाप्ती के उपाय भी कर रही हों अन्यथा कोई कारण नहीं कि जिस भारतीय गो वंश का संवर्धन-पालन विश्व के देश अनेक वर्षों से कर रहे हैं, भारत में उसकी समाप्ति की सारी योजनायें बे रोकटोक जारी हैं. जिस विशकारक गो वंश को अमेरिका तक अपने देश में समाप्त करने के व्यापक प्रयास कर रहा है, उस हानिकारक हॉलीस्टीन अदि अमेरिकी गोवंश को भारत पर थोंपा जा रहा है, गोवंश संवर्धन के नाम पर.
अतः आवश्यक है कि हम अपने देश के हित में भारतीय गोवंश के संरक्षण व संवर्धन के उपाय व चिकत्सक होने के नाते पंचगव्य के प्रयोग के संकल्पबद्ध प्रयास करें. यह सब तभी संभव है जब हमें अपनी सामर्थ्य व सांस्कृतिक श्रेष्ठता पर विश्वास हो. फिर इस सब में बाधक बनने वाली शक्तियों के कुटिल प्रयासों का शिकार हम नहीं बनेगे और अपने शत्रु-मित्र की पहचान सरलता से कर सकेंगे . तब हम भारत-भारतीयता यानी राष्ट्र विरोधियों से निपटने के उपाय भी जीवन के हर क्षेत्र में कर सकेंगे. आज चिकित्सा क्षेत्र में भी राष्ट्र विरोधी शक्तियों को पहचानने व उनके निराकरण की आवश्यकता है. हमारे अमूल्य गोवंश के विनाश के पीछे भी तो राष्ट्र विरोधी प्रयासों को हम तभी पहचान पाएंगे और उनका समाधान कर पायेंगे जब हम मैकाले की दी दुर्बुधि से मुक्ती पायेंगे और अपने देश समाज, राष्ट्र व संस्कृति को अपनी खुद की दृष्टी से देखना सीखेंगे.
मेरी किसी बात से किसी की को कष्ट हुआ हो तो मैं उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ पर मैंने जो कुछ भी लिखा है वह सबके कल्याण की दृष्टी से है, किसी को अपमानित करने या कष्ट देने के लिए नहीं.
वन्दे मातरम ! गो माता कि जय!!

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