ओबामा चले स्वदेशी की राह - हम कब फिर से चलेंगे?
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा अमरीकियों से कह रहे हैं कि वे अब अमेरिकी उत्पाद ही खरीदें, क्योंकि मुल्क मंदी की गिरफ़्त में है। उनके कहने का मतलब है कि अगर अमरीकी विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करेंगे तो देशी उत्पादन की खपत बढ़ेगी और ज़ाहिर है इससे देशी कंपनियाँ मंदी से उबरेंगी। स्वदेशी की इस भावना से रोज़गार की संभावनाएं भी बढ़ जाएंगी।
अब मज़े की बात ये है कि अभी तक यही अमेरिका और उसके इशारे पर दुनिया को चलाने वाले विश्वबैंक तथा मुद्रा कोष स्वदेशी को भूमंडलीकरण और खुली आर्थिक नीतियों के विरूद्ध मानते थे। विरुद्ध ही नहींमानते थे बल्कि सभी तरह की रोक-टोक हटाने के लिए तरह-तरह से बाहें भी मरोड़ते थे। उन्हीं की देखादेखी मनमोहन मंडली भी स्वदेशी को समाप्त करके विदेशी को बढ़ावा देने लगी थी। आत्मनिर्भरता का प्रश्न उनके लिए उपहास की चीज़ बन गया था क्योंकि उन्होंने उस भूमंडलीकृत दुनिया में जीना शुरू कर दिया था जो कि अभी बनी ही नहीं थी। इसीलिए उसने विदेशी वस्तुओं के लिए सारे दरवाज़े उसने खोल दिए थे और उन पर लगने वाले तमाम तरह के शुल्क भी बहुत कम या ख़त्म कर दिए थे। नतीजा ये हुआ कि हमारे बाज़ार विदेशी वस्तुओं से पट गए। फारेन मेड के दीवाने हम भारतीय उनपर टूट पड़े और हमारे उद्योग चरमराने लगे।
ओबामा के स्वदेशी मंत्रजाप से पता चलता है कि एक झटके ने ही अमेरिका को सिर के बल खड़ा कर दिया है। अब वह अपने उद्योग-धंधों को बचाने के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने की बात करने लगा है। अब उसे चिंता नहीं है कि दुनिया भर में व्यापार में रुकावटें नहीं होनी चाहिए। मुश्किल ये है कि जो मुल्क उसकी मर्ज़ी पर चल रहे थे अब वे फँस गए हैं जैसे कि भारत। भारत की बहुत सी कंपनियों ने खुद को निर्यात पर निर्भर कर लिया था, अब वे डूबेंगी, जिसका अर्थ है मंदी की दोहरी मार। बेरोज़गारी और फैलेगी सो अलग।
इसीलिए जी-20 की बैठक मे हिस्सा लेने पहुँचे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह गुहार लगाई की बड़े मुल्क संरक्षणवादी रवैया न अपनाएं। अब मनमोहन सिंह को कौन समझाए कि ये मुल्क अपना मतलब देखते हैं। इन्होंने न तो पहले छोटे मुल्कों की कभी सुनी है और न अब सुननेवाले हैं। वे तो पहले अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाएंगे चाहे इससे आपका दीवाला ही क्यों न निकल जाए। ओबामा के स्वदेशी हमले का जवाब तो हमारा स्वदेशी ही हो सकता है। बेहतर तो यही होगा कि भारत भी विदेशी कंपनियों के लिए दरवाज़े बंद करे और देशी कंपनियों को संरक्षण प्रदान करे।
अब मज़े की बात ये है कि अभी तक यही अमेरिका और उसके इशारे पर दुनिया को चलाने वाले विश्वबैंक तथा मुद्रा कोष स्वदेशी को भूमंडलीकरण और खुली आर्थिक नीतियों के विरूद्ध मानते थे। विरुद्ध ही नहींमानते थे बल्कि सभी तरह की रोक-टोक हटाने के लिए तरह-तरह से बाहें भी मरोड़ते थे। उन्हीं की देखादेखी मनमोहन मंडली भी स्वदेशी को समाप्त करके विदेशी को बढ़ावा देने लगी थी। आत्मनिर्भरता का प्रश्न उनके लिए उपहास की चीज़ बन गया था क्योंकि उन्होंने उस भूमंडलीकृत दुनिया में जीना शुरू कर दिया था जो कि अभी बनी ही नहीं थी। इसीलिए उसने विदेशी वस्तुओं के लिए सारे दरवाज़े उसने खोल दिए थे और उन पर लगने वाले तमाम तरह के शुल्क भी बहुत कम या ख़त्म कर दिए थे। नतीजा ये हुआ कि हमारे बाज़ार विदेशी वस्तुओं से पट गए। फारेन मेड के दीवाने हम भारतीय उनपर टूट पड़े और हमारे उद्योग चरमराने लगे।
ओबामा के स्वदेशी मंत्रजाप से पता चलता है कि एक झटके ने ही अमेरिका को सिर के बल खड़ा कर दिया है। अब वह अपने उद्योग-धंधों को बचाने के लिए तरह-तरह के प्रतिबंध लगाने की बात करने लगा है। अब उसे चिंता नहीं है कि दुनिया भर में व्यापार में रुकावटें नहीं होनी चाहिए। मुश्किल ये है कि जो मुल्क उसकी मर्ज़ी पर चल रहे थे अब वे फँस गए हैं जैसे कि भारत। भारत की बहुत सी कंपनियों ने खुद को निर्यात पर निर्भर कर लिया था, अब वे डूबेंगी, जिसका अर्थ है मंदी की दोहरी मार। बेरोज़गारी और फैलेगी सो अलग।
इसीलिए जी-20 की बैठक मे हिस्सा लेने पहुँचे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह गुहार लगाई की बड़े मुल्क संरक्षणवादी रवैया न अपनाएं। अब मनमोहन सिंह को कौन समझाए कि ये मुल्क अपना मतलब देखते हैं। इन्होंने न तो पहले छोटे मुल्कों की कभी सुनी है और न अब सुननेवाले हैं। वे तो पहले अपनी अर्थव्यवस्था को मज़बूत बनाएंगे चाहे इससे आपका दीवाला ही क्यों न निकल जाए। ओबामा के स्वदेशी हमले का जवाब तो हमारा स्वदेशी ही हो सकता है। बेहतर तो यही होगा कि भारत भी विदेशी कंपनियों के लिए दरवाज़े बंद करे और देशी कंपनियों को संरक्षण प्रदान करे।
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