बुधवार, 29 सितंबर 2010

सत्ता का जनविरोधी चरित्र

सत्ता का जनविरोधी चरित्र

काग्रेस सरकार ने माओवादियों के खिलाफ जंग छेड़ दी है जो ठीक ही है चूंकि सत्तारूढ़ पार्टी के लिए घने जंगलों में दबे हुए खनिजों के खनन एवं जलविद्युत के उत्पादन के लिए इन क्षेत्रों को खोलना जरूरी है। सरकार की सोच है कि इन रास्तों से हासिल हुए आर्थिक विकास से सरकार का राजस्व बढ़ेगा, रोजगार गारंटी जैसी जनहितकारी योजनाएं चलाई जा सकेंगी और जनहित हासिल होगा। परंतु सरकार भूल रही है कि विकास की इस प्रक्रिया में वह आदमी पहले ही स्वाह हो जाएगा, जिसके नाम पर ये उद्योग लगाए जा रहे हैं। तथापि सरकार ऐसा सोचती है लेकिन मंत्रियों के निजी स्वार्थ इन्हीं विकास योजनाओं से जुड़े हैं। आश्चर्य की बात यह है कि प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा एवं हिंदू संत समाज द्वारा सरकार की इस सैन्य कार्यवाही का पुरजोर समर्थन किया जा रहा है। वे गरीब की उस आह की अनदेखी कर रहे हैं, जिस कारण उन्होंने ये अस्त्र उठाए हैं। ये विद्वान भूल रहे हैं कि गरीब को इसी प्रकार की त्रास देने के कारण भारत छोटा होता जा रहा है।
आज से पांच हजार वर्ष पूर्व भारत की सिंधु घाटी सभ्यता विश्व में सर्वश्रेष्ठ थी। इस सभ्यता के व्यापारियों का तत्कालीन मिस्त्र और इराक के व्यापार पर दबदबा था। लेखक बीबी राजवंशी के अनुसार पश्चिम एशिया केतमाम शहरों के नाम भारतीय मूल के शब्दों पर आधारित हैं जैसे असुर सेअशुर , अमरावती से अमरा शहर, आर्यमान से इरान, एरावत वन से एरावन, नंदन वन
से नखीचेवन, पुर से पर्शिया इत्यादि। संभव है कि ये नाम भारतीय प्रवासियों द्वारा दिए गए थे। बौद्ध काल में भारत से अनेक भिक्षु विश्वके दूसरे देशों में गए थे, परंतु पिछले हजार वर्षों से भारतीय सभ्यता का लगातार संकुचन हो रहा है। लोधियों के बाद बाबर जैसे योद्धा छोटी सेना के बल पर भारत पर कब्जा करने में सफल हुए। कारण यह दिखता है कि देश के आम आदमी ने घरेलू आतताई शासकों के विरुद्ध विदेशी शासकों का साथ दिया। मीर जाफर जैसे लोगों ने अंग्रेजों की मदद की और उनका शासन स्थापित कराया।
1947 के पहले ही बर्मा, सीलोन, नेपाल और अफगानिस्तान अलग हो चुके थे। 1947 में पाकिस्तान अलग हुआ। मुसलमान भाइयों को हिंदू शासकों के न्याय पर भरोसा नहीं था। तमाम गरीब लोग ईसाई और इस्लाम धर्म को लगातार कबूल कर रहे हैं, चूंकि उन्हें हिंदू समाज में न्याय नहीं मिल रहा है। इसी क्रम में डा. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को अपनाया था। कुछ वर्ष पूर्व उदयपुर के आदिवासी क्षेत्र में एक युवक से भेंट हुई, जिसने हाल में ही ईसाई धर्म कबूल किया था। वह बीमार पड़ गया था। हिंदू पंडित के पास गया तो उसने पूजा-अर्चना के लिए पैसे मागे। घर के जेवर बेचकर कुछ पैसे दिए परंतु लाभ नहीं हुआ। ईसाई चर्च में गया तो मुफ्त दवा और साथ में दुआ भी मिली और वह स्वस्थ हो गया। डूंगरपुर के आदिवासियों ने बताया कि स्वदेशी हिंदू राजाओं के अत्याचार से बचने के लिए वे अजमेर के ब्रिटिश प्रेजिडेंसी क्षेत्र में भाग कर पनाह लेते थे। आज भी दलित बुद्धिजीवियों का एक वर्ग अंग्रेजों के शासन को उत्तम मानता है। इस आक्रोश का कारण यह है कि भारतीय शासकों का मूल चरित्र जनविरोधी है। इस चरित्र की पकड़ इतनी गहरी है कि डा. मनमोहन सिंह जैसा ईमानदार व्यक्ति भी इसकी गिरफ्त में आ गया है।

प्रधानमंत्री देश में व्याप्त सरकारी कर्मियों के अत्याचार को रोकने के स्थान पर उसे बढ़ावा दे रहे हैं। नक्सलियों का दावा है कि उनके आंदोलन के कारण तेंदू पत्ता कर्मियों का वेतन 10 रुपये प्रतिदिन से बढ़कर 40 रुपये प्रतिदिन हो गया है। यह कार्य सरकार के लेबर इंसपेक्टर नहीं कर सके थे। इन क्षेत्रों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली कागज पर चल रही है। पुलिस रक्षक के स्थान पर भक्षक बन गई है। भूमि वितरण की गंध भी इधर नहीं पहुंची है। अर्थव्यवस्था के इस जनविरोधी चरित्र को तोड़ने के स्थान पर प्रधानमंत्री इसे जनहितकारी बता कर जनता को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे हैं। पार्टी के युवा नेता दलित की झोंपड़ी में रात बिताते हैं परंतु उसके बंद हुए हथकरघे को चलाने का जतन नहीं करते। गरीब को मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ सुविधाएं उपलब्ध कराने के नाम पर भारी भरकम वेलफेयर माफिया को पोषित किया जा रहा है। प्रधानमंत्री की इस विकृत विचारधारा को भाजपा ने भी पूर्णतया अपना लिया है। भाजपा शासित राज्यों में संस्कृत भाषा, गोरक्षा, आयुर्वेद जैसे संभ्रात वर्ग के मुद्दों पर
अपने मार्गदर्शकों को भ्रम में डालकर जनविरोधी आर्थिक नीतियों को तेजी से लागू किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड की सरकारें खनन एवं जलविद्युत के नाम पर गरीब को कुचलने के लिए स्पेशल टास्क फोर्स गठित कर रही हैं। दूसरी पार्टिया भी पीछे नहीं हैं। जनसंकल्प संस्था के अनुसार उत्तरप्रदेश के कौशाबी जिले में बसपा सरकार द्वारा पोषित बालू एवं मछली माफियाओं ने वहां के गरीबों के पारंपरिक खनन एवं मछली पकड़ने के अधिकारों को हड़प लिया है। बंगाल में मार्क्सवादियों ने नंदीग्राम में जनता को इसी प्रकार कुचलने का प्रयास किया है। पिछले हजार वर्षों में पैदा हुआ हमारा गरीब विरोधी चरित्र सर्वव्यापी हो गया है। इस दुरूह परिस्थिति में गरीब द्वारा अस्त्र उठाना एवं माओवादियों को समर्थन देने को अनुचित कैसे ठहराया जा सकता है?
संकेत मिल रहे हैं कि माओवादियों के चीन, पाकिस्तान की आईएसआई एवं दूसरे विदेशी संस्थाओं से संबंध स्थापित हो चुके हैं। देशप्रेमियों का कहना है कि जो भी हो, माओवादियों को बाहरी ताकतों का सहारा नहीं लेना चाहिए। कानूनी तौर पर यह तर्क सही है। परंतु मानवता के स्तर पर देश की सरहद का महत्व नहीं होता है। सच यह है कि हमारे दुश्मन हमारे नेताओं द्वारा गरीबों पर ढाए जा रहे अत्याचार का लाभ उठा रहे हैं जैसा कि कौटिल्य ने सलाह दी थी। अर्थशास्त्र ग्रंथ के सातवें खंड के अध्याय 4 एवं 5 में कौटिल्य लिखते हैं, ‘जब राजा को ज्ञात हो कि दुश्मन के नागरिक सताए जा रहे हैं, उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है, गरीब परेशान और बिखरे हुए हैंऔर उनसे अपने शासक के त्याग की अपेक्षा की जा सकती है तब दुश्मन पर धावा बोल देना चाहिए। जब लोग गरीबी से त्रस्त होते हैं तो वे लालची हो जाते हैं, जब वे लालची होते हैं तो वे अनमने हो जाते हैं और स्वेच्छा से दुश्मन की तरफ हो जाते हैं अथवा अपने शासक को नष्ट कर डालते हैं। अत:राजा को कोई भी ऐसा कृत्य नहीं करना चाहिए, जिससे जनता में गरीबी, लालच अथवा अनमनापन पैदा हो। यदि यह स्थिति पैदा हो जाए तो तत्काल सुधार करना चाहिए।’

हमारे दुश्मन देख रहे हैं कि भारत की लगभग सभी पार्टिया जनविरोधी हो चली हैं। जनता त्रस्त है। जैसे पूर्व में देश के आम आदमी से बाबर आदि को समर्थन मिला था, वैसा ही आज विदेश-पोषित क्रांतिकारियों एवं मिशनरियों को मिल रहा है। विशेष दुर्भाग्य यह है कि विपक्षी पार्टियों और धर्मगुरुओं द्वारा गरीब के दर्द को दूर करने की बात नहीं उठाई जा रही है। केवल गरीब के दर्द को आवाज दे रहे माओवादी संगठनों के विदेशी संबंधों की भ‌र्त्सना की जा रही है। इस तरह तो सौ साल में ही भारतीय संस्कृति लुप्त हो जाएगी। हमें गरीबों के खिलाफ आक्रामक रुख अपनाने के बजाए पिछले एक हजार वर्षों में गरीबों पर ढाए गए अत्याचारों का प्रायश्चित करना चाहिए।

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